_(लेखक: शिवकांत शर्मा )
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतेरस ने हाल में कहा, ‘आधी मानवता बाढ़, सूखे, दावानल और प्रचंड तूफानों की गिरफ्त में है, फिर भी हम हैं कि जैव ईंधन फूंकने की अपनी लत को पाले हुए हैं। हमारे पास विकल्प है- सामूहिक प्रयास या सामूहिक आत्महत्या। चुनना हमारे हाथों में है।’ ये शब्द उनकी झुंझलाहट को ही व्यक्त करते हैं। इन दिनों पाकिस्तान को छह दशकों की सबसे विनाशकारी अतिवृष्टि ने तबाह कर रखा है। भारत के कई पूर्वोत्तरी और दक्षिणी क्षेत्र बारिश और बाढ़ की चपेट में हैं। वहीं तमाम मैदानी इलाकों में सूखे जैसी स्थिति है।

चीन में दशकों के रिकार्ड तोड़ने वाली गर्मी और कई बरसों से पड़ रहे सूखे के बाद यंग्त्से नदी सूखने लगी है। इससे पनबिजली ही नहीं, परमाणु और तापीय बिजली का उत्पादन भी गिर गया है, क्योंकि परमाणु और तापीय बिजली घरों में भी भट्टियों को ठंडा रखने के लिए नदियों और झीलों के पानी की जरूरत होती है। चीन ने सूखे की चपेट में आए अपने उत्तरी प्रांतों में पानी पहुंचाने के लिए दक्षिण के तिब्बती पठार से निकलने वाली नदियों को उत्तरी नदियों से जोड़ने का काम शुरू किया है। इसका असर भारत आने वाली ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी नदियों के जलस्तर पर पड़ सकता है।

पूर्वी अफ्रीकी देश सोमालिया में कई वर्षों से पड़ रहे सूखे के कारण सदी के भीषणतम अकाल की स्थिति पैदा हो गई है। यूरोप में गत वर्ष विनाशकारी बाढ़ के बाद इस साल रिकार्डतोड़ गर्मी और सूखे के कारण जलसंकट पैदा हो गया है। डैन्यूब, राइन जैसी प्रमुख नदियों का जलस्तर इतना गिर चुका है कि कई शहरों में पीने और सिंचाई के पानी का संकट हो गया है। नदियों का जलस्तर गिरने से पनबिजली और परमाणु बिजली का उत्पादन भी कम हुआ है, जिसने यूक्रेन युद्ध से पैदा ऊर्जा के संकट को और गंभीर बना दिया है। फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, इटली जैसे देशों में अब ऊर्जा के लिए गैस और तेल पर चली आ रही निर्भरता घटाकर सौर, पवन एवं पनबिजली की ओर बढ़ने और जल संरक्षण के उपायों पर भी विचार हो रहा है। यूरोप में हरे-भरे चारागाह सूखे मैदानों में बदलने लगे हैं, जिनमें जरा सी चिंगारी से आग लग जाती है और हजारों एकड़ जंगल जलकर राख हो जाते हैं।

अमेरिका के पश्चिमी प्रांतों में भी पिछले कई वर्षों से चल रही ग्रीष्म लहर और सूखे की वजह से कोलोराडो जैसी नदियों एवं झीलों का पानी और भूजल गिरने लगा है। सिंचाई और वानिकी की वजह से रेगिस्तान से हरे-भरे बने कैलिफोर्निया के पठारी इलाके दोबारा रेगिस्तान में बदल रहे हैं। पिछले साल कनाडा के पश्चिमी प्रांतों के कुछ शहरों में थार के मरुस्थल जितना तापमान दर्ज किया गया और सैकड़ों लोग लू लगने और दावानल फैलने से मारे गए थे। आज धरती का कोई कोना ऐसा नहीं जिसे जलवायु परिवर्तन की मार न झेलनी पड़ी हो। फिर भी जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए होने वाले सम्मेलन मामूली प्रगति को छोड़कर केवल जुबानी जमाखर्च बनकर रह जाते हैं।

अमेरिका में बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद उम्मीद बंधी थी कि अमेरिका और चीन मिलकर जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए काम करना शुरू करेंगे, पर दोनों देशों ने इस मुद्दे को अपने-अपने राजनीतिक हितों की बलि चढ़ा दिया। बाइडन की अपनी डेमोक्रेटिक पार्टी के ही एक सीनेटर ने उनके उस जलवायु बिल पर रोड़ा अटका दिया, जिसका वह ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में वचन देकर गए थे। उधर चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का सारा ध्यान अक्टूबर में कम्युनिस्ट पार्टी महाधिवेशन पर है, जिसमें उन्हें पार्टी का आजीवन नेता चुने जाने की प्रबल संभावना है।

व्यापार नीतियों, रूस-यूक्रेन युद्ध और ताइवान को लेकर अमेरिका के साथ चल रहे टकराव की पृष्ठभूमि में चिनफिंग जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई ऐसा कदम उठाने का जोखिम मोल नहीं ले सकते, जो अमेरिका के दबाव में उठाया गया प्रतीत हो। इसलिए नवंबर में मिस्र के शर्म अल-शेख में होने जा रहे जलवायु सम्मेलन में भी दुनिया की इन दो प्रदूषक महाशक्तियों से कोई बड़ी उम्मीद रखना व्यर्थ होगा।

विज्ञानियों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम केवल यातायात और उद्योगों से होने वाले उत्सर्जन पर अंकुश लगाकर, वनों को बचाकर और नए पेड़ लगाकर नहीं की जा सकती। लोगों को अपनी समग्र जीवनशैली में छोटे-बड़े बदलाव करने होंगे। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हमारे कुल उत्सर्जन का करीब एक तिहाई भोजन के उत्पादन से होता है। दुनिया का लगभग 23 प्रतिशत गैस उत्सर्जन अकेले पशुपालन से होता है। मांस और डेयरी उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण दुनिया में मवेशियों की संख्या इंसानों से दोगुनी और मुर्गे-बत्तखों की संख्या तीन गुनी हो चुकी है।

चिंता की बात यह है कि आर्थिक विकास के साथ-साथ भारत जैसे बड़ी शाकाहारी आबादी वाले देशों में भी मांस खाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विज्ञानियों का कहना है कि सौ ग्राम गोमांस तैयार करने में 50 किलो कार्बन उत्सर्जन होता है। सौ ग्राम बकरे के मांस से 20 किलो, मुर्गी के मांस से छह किलो और अनाज से मात्र तीन किलो उत्सर्जन होता है। यदि हम अपने भोजन में मांस और डेयरी उत्पादों की मात्रा कम कर लें तो उत्सर्जन को काफी हद तक घटाया जा सकता है।

असमय वृष्टि, सूखा, बाढ़, तूफान और समुद्रों के बढ़ते जलस्तर जैसी आपदाओं के लिए विकसित देशों को कठघरे में खड़ा करना और जलवायु न्याय की मांग करना अपनी जगह सही है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि बदलती जलवायु के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। भारतीय शहरों की जहरीली आबोहवा के लिए अमेरिका और चीन जिम्मेदार नहीं हैं। आबोहवा इतनी जहरीली हो चुकी है कि हर साल लगभग 17 लाख लोग मरने लगे हैं। यह आंकड़ा विज्ञान पत्रिका ‘लांसेट’ का है, जबकि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का एक शोध कहता है कि भारत में हर तीसरी मौत वायु प्रदूषण से हो रही है। इसलिए यह हमारे हित में है कि हम आयातित तेल और गैस पर निर्भरता कम करते हुए जल्द सौर, पवन और हाइड्रोजन ऊर्जा का विकल्प अपनाएं और अपना हवा-पानी साफ करें।

(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक है)