बाड़मेर। जिला मुख्यालय से लगभग 18 कि.मी. दूर स्थित राणीगांव में वर्ष 2002 में हुए ऐतिहासिक ओरण बचाओ आन्दोलन की चिरस्मृति में 26 अप्रैल शुक्रवार को ओरण दिवस मनाया जायेगा । जिसको लेकर ओरण बचाओ आन्दोलन, बाड़मेर के जिला संयोजक एवं सामाजिक कार्यकर्ता मुकेश बोहरा अमन के नेतृत्व में ओरण की पूजा-अर्चना, वृक्षों को रक्षा-सूत्र बांधने एवं पर्यावरण संरक्षण संकल्प कार्यक्रम का आयोजन किया जायेगा । ओरण बचाओ आन्दोलन से जुड़े बाबूलाल वादी एवं महावीर जैन ने बताया कि ओरण बचाओ आन्दोलन की 17वीं वर्षगांठ के अवसर पर 26 अप्रैल शुक्रवार को धर्मपूरी की ओरण राणीगांव में ओरण-गोचर की पूजा अर्चना की जाएगी तथा ओरण में स्थित वृक्षों को रक्षासूत्र बांध ओरण-गोचर संरक्षण का संकल्प लिया जायेगा । इस दौरान ओरण बचाओ आन्दोलन से जुडे कई कार्यकर्ता मौजूद रहेंगें ।
वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं का बेहतर समाधान है ओरण -गोचर संरक्षण:- बोहरा
पर्यावरण का हमारे जीवन से गहरा नाता रहा है । पर्यावरण हमारे रहन सहन , खान पान आदि आदि को प्रभावित करता है । वर्तमान दौर में जहां एक ओर पर्यावरण कई समस्याओं से ग्रसित होता जा रहा है वहीं हम मह्ज समस्या समस्या ही किये जा रहे है जबकि हमें कारगर समाधानों की तत्काल जरूरत है । जहां मेरी समझ का सवाल है तो मैं समझता हूं कि देशभर में ओरण गोचर के समान विद्यमान संस्कृति जैसे देववन, समाधिवन, थान, मावमुण्ड आदि भू क्षेत्रों को पर्याप्त संरक्षण देकर विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय समस्याओं से निपटा जा सकता है । 05 जून को प्रतिवर्ष मनाये जाने पर्यावरण दिवस व इसी के समकक्ष पर्यावरण से जुड़े दिवसों, पर्वों, त्यौहारों को मनाने की सार्थकता तभी है जब हम समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस कदम उठाते है । ओरण गोचर क्षेत्रों के संरक्षण के द्वारा विभिन्न प्रकार के अलाभकारी पर्यावरणीय खतरों से बचा जा सकता है । ओरण गोचर क्षेत्रों का संरक्षण पर्यावरणीय समस्याओं का बेहतर समाधान साबित हो सकता है ।
क्या है ओरण गोचर:- ओरण गोचर का निर्माण, संरक्षण व संवर्द्धन समुदाय द्वारा होता है । इसका संरक्षण भी अपने स्तर पर समुदाय ही करता है । यहां ओरण गोचर का मतलब इस प्रकार की भूमि से है जो समुदाय द्वारा अपने इष्ट अथवा महापुरूषों के नाम पर वन्य जीव जन्तुओं, पशु पक्षियों आदि के निर्भय जीवन निर्वह्न के लिए सुरक्षित रखी गई है । जिसमें वृक्ष काटना तो दूर वृक्ष की टहनी काटना भी निषिद्ध माना जाता है । ओरण शब्द का तात्पर्य अरण्य से है । अरण्य का मतलब होता है वन अथवा जंगल । स्थानीय बोलचाल की भाषा में ओरण का मतलब आन अथवा आण से भी लिया जाता है । जिसका अर्थ शपथ या सौगन्ध से लिया जाता है । राजस्थान के लिहाज से ओरण गोचर की संस्कृति बहुत पुरानी है । ओरण गोचर के संरक्षण के लिए लोग कुर्बानियां देने तक तैयार हो जाते थे । लेकिन समय की बदली करवट के बाद ओरण गोचर के स्थानीय लोगों के साथ साथ सरकार भी मोहताज हो गई है ।
देशभर में है ओरण लेकिन नाम अलग:- राजस्थान में ओरण गोचर की भांति देषके अलग अलग राज्यों में देवी देवताओं आदि के नाम पर वन्य प्राणियों , मवेषियों व जीव जन्तुओं के निमित छोड़े गये भू भाग को भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है । ओरण गोचर को हरियाणा में तीरथवन, समाधिवन तथा गुरूद्वारा वन, आसाम में थान , मिजोरम में मावमुण्ड , सिक्किम में गुंपा , तमिलनाडु में कोकिलनाडु , हिमाचल प्रदेष में देववन, महाराष्ट्र में देवराई ,अरूणाचल प्रदेष में गुंपा और उतरांचल में देववन के नाम से जाना जाता है । इसी तरह देष के अन्य राज्यों में भी ओरण गोचर भू भाग विद्यमान है । जिन्हें प्रकाष में लाने व संरक्षित की जरूरत है ।
ओरण की उपयोगिता:-
ओरण गोचर सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ साथ पषुपालको व मवेषियों के जीव का आधार है । गांवों में मवेषियों के ठहरने व पषुपालको के लिए पषुओं को सुरक्षित रखने के लिए ओरण गोचर ही एकमात्र स्थान है । जहां पशुपालक वर्ग विषेषकर रेबारी जाति के लोग अपनी रेवड़ को इन स्थानों में ठहरात है तथा सुरक्षित आश्रय की पूर्ति करते है । ओरण गोचर क्षेत्र महज मवेषियों के लिए ही नही बल्कि छोटे बड़े अनेकानेक जीवों की शरण स्थली भी है ।
हमारी संस्कृति एवं सभ्यता ने हमें ऐसे कई बैजोड़ संस्कार अथवा तत्व प्रदान किये है जो हमारे लिए बहु-उपयोगी होने के साथ-2 अमूल्य निधियां है जिनमें से ‘ओरणÓ एक है।
यह संस्कार हमारे पूर्वजों द्वारा दी गई एक ऐसी अमूल्य विरासत है जो हमें अनेकानेक फायदे पहुंचाने के साथ-2 जीवन में आने वाली प्राकृतिक विपदाओं से दूर करती है। ओरण बचाया जाना और उसको बचाने के लिए कोषिष करना वास्तव में मौजूदा एवं भावी पर्यावरणीय संकटों से निजात पाने की एक शानदार एवं प्रषसंनीय पहल है। यह ओरण हमारी सांस्कृतिक एवम् धार्मिक धरोहर के साथ-साथ पशुपालकों एवम् पशुओं का प्राण है। राजस्थान की अर्थव्यवस्था वृहत्त उद्योगों पर निभर न होकर कृशि एवम् पशुपालन जैसे व्यवसायों पर निर्भर है हालांकि हमारी कृशि तो मानसून का जुआ बन चुकी है मगर पशुपालन के क्षेत्र में राजस्थान के पिछड़े तबके के लोगों व ग्रामीण आंचलों में आज भी रोजगार व आजीविका कमाने की राहें पहले की तरह ही चैड़ी व खुली बरकरार है। इस पशुपालन के सरंक्षण में राज्य में विद्यमान ओरणों का अहम् योगदान है। पशुपालन करने वाली जातियों में विषेषकर रेबारी जाति के लिए यह ओरण एक वरदान साबित हुई है।
इन ओरण गोचर क्षेत्रों का आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक मायनों में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है । पष्चिमी राजस्थान में पशुपालन व्यवसाय विषेषकर वर्षाकाल में इन क्ष़ेत्रों पर ही निर्भर है । यहां की पशुपालक रेबारी जाति का तो यह क्षेत्र आसरा ही है । जहां वे अपने मवेशियों को ठहराते है तथा रात्रि विश्राम करते है । यहां के पशु – पक्षी, जीव – जन्तुओं आदि का क्षेत्र शरण स्थली है ।
पारिस्थिकी असंतुलन, पर्यावरण प्रदूशण गलोबल वार्मिंग, ग्लोबल कूलिंग आदि जैसी कई समस्याओं के लिए ओरण गोचर क्षेत्र एक कारगर औशधि की तरह है । ओरण गोचर क्षेत्रों का संरक्षण, संवर्द्धन एवं विकास होने समय की आवश्यकता हो गई है ।श्
ओरण गोचर क्षेत्रों के इस दौर में उपयुक्त उपयोगिताओं के भी अनेकानेक उपयोग हो रहे है । ओरण गोचर क्षेत्रों का उपयोग पशु चराई, पशु शरण स्थली, इमारती लकडियां तथा ईंधन, विभिन्न प्रकार की जड़ी बुटियां, घास उत्पादन, वन्य जीवों की शरण स्थली, फल उत्पादन, अकाल का विकल्प सहित कई प्रकार से होता आ रहा है जिसने जन जन में आस्था की भवना पैदा की है ।
ओरण एक धरोहर है:-
हमारी संस्कृति एवं सभ्यता ने हमें ऐसे कई बेजोड़ संस्कार अथवा तत्व दिये है जो हमारे वर्तमान व भविष्य के बहुपयोगी होने के साथ साथ अमूल्य निधियां भी है । ओरण गोचर क्षेत्रों का प्रचलन सर्वप्रथम कब व कहां हुआ ? यहां ठीक ठीक बता पाना बेहद ही मुष्किल है । ओरण गोचर के बारे में लिखित दस्तावेज की अनुपलब्धता ने इसकी प्राचीनता के सवाल को पेचीदा बना दिया है । लेकिन यह तय है कि मानव ने जब कृषि एवं
पषुपालन का कार्य प्रारम्भ किया तभी से इन क्षेत्रों की जरूरत रही होगी और आमजन ने मिलकर आपसी समझोते के तहत ओरण गोचर का प्रावधान किया होगा । जिसे उन लोगों ने धर्म का स्वरूप देकर और मजबूत करने की कोषिष की । इन सबके बावजूद ओरण गोचर का इतिहास काफी पुराना है । स्थानीय किवदंतियों एवं मौखिक वार्तालाप से पता चलता है कि ओरण गोचर का इतिहास 56 ई. पूर्व रहा होगा । राजस्थान में बाड़मेर जिले की ढ़ोक की वांकल माता की ओरण के विषय में जानकारी के बाद ओरण की प्राचीनता के प्रमाण पुख्ता होते है ।
अतिक्रमियों का आतंक:-
दिन प्रति दिन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से ओरण गोचर पर अतिक्रमण की खबरें लगातार बढ़ते हुए क्रम में प्रकाष में आ रही है ।इस प्रकार अतिक्रमण के मामलों हो रही बढ़ोतरी ओरण गोचर संरक्षण के लिए बेहद ही घातक है । इसके लिए आमजन एवं प्रषासन दोंनों को ही कुम्भकर्णी निद्रा त्याग कर आगे आना होगा । अन्यथा आधुनिकता की चकाचैंध व स्वार्थपरता के दौर में ओरण गोचर क्षेत्रों को बचा पाना मुष्किल है ।
सरकारी उपेक्षा की षिकार:-
देषभर में पसरी आमजन की सांस्कृतिक धरोहर ओरण गोचर वर्तमान परिदृष्य में अपने विस्तार एवं स्वरूप को लेकर स्वार्थी तत्वों के निषाने पर है वहीं ओरण गोचर के संरक्षण के प्रति आमजन, जिम्मेदार लोगों एवं प्रषासन के लचर रवैये के चलते अस्तित्व खतरे में है । ओरण गोचर क्षेत्रों के साथ सबसे नाइंसाफी तो यहहो रही है कि इनकी समय समय पर पैमाईष नही हो पा रही है जिसके चलते ओरण गोचर क्षेत्र सिमटते जा रहे है । सरकारी स्तर पर ओरण गोचर संरक्षण को लेकर किसी की कोई खास रूचि नही रही है । ओरण गोचर के बारे में व्यवस्थित आंकड़ों का भी अभाव है । प्रषासनिक जागरूकता के अभाव में अतिक्रमियों के होंसले दिनों दिन बढ़ते जा रहे है । जिससे ओरण गोचर का विस्तृत भू भाग सिमट रहा है । रानीगांव में हुए ओरण बचाओं आन्दोलन में भी सरकारी सहयोग के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी तथा अन्तत: एक विशाल जन आन्दोलन करना पड़ा तब जाकर प्रशासन ने ओरण में होने वाले नाजायज अतिक्रमण से मुक्त करवाने में अपना सहयोग दिया था। यह प्रशासन का अचेतन रवैया सनातन संस्कृति के लिए बेहद ही खतरनाक साबित हो सकता है।
अवैध खनन ने भी उजाडा है ओरण को –
ओरण गोचर को बंजर करने में भी स्वार्थी तत्वों ने कोई कसर नही छोड़ी है । शहरों व गावों में बनने वाली डामरीकृत सड़कों में कच्चे मेटेरियल के रूप में प्रयुक्त होने वाले मुरड़े को मुफ्त में पाने की खातिर चोरी छिपे इन क्षेत्रों में अक्सर खुदाई होती रहती है जिससे ओरण गोचर क्षेत्रों के स्वरूप को भंयकर रूप से क्षति पहुंची है ।
धरोहर को नही मिल रहे है आगीवाण:-
गांव दर गांव व ढ़ाणी दर ढ़ाणी तक अपने विस्तृत भू भाग में फैली ओरण गोचर को सुरक्षित व संरक्षित रखने वाले आगीवाण नही मिल रहे है । जबकि एक वक्त जब लोग आगे आकर ओरण गोचर क्षेत्रों की सुरक्षा करते थे तथा लोगों में आपसी समझाईष करते थे । यहां तक कि अेारण में लकड़ी तक काटने को पाप के बराबर माना जाता था । वहीं आमजन में भी एक प्रकार की आस्था एवं श्रद्धा का माहौल था । ऐसे आगीवाण लोगो के अभाव के चलते धरोहर को पूर्ण संरक्षण नही मिल पा रहा है ।
ओरण बचाओ आन्दोलन:-
हमारी संस्कृति एवं सभ्यता ने हमें ऐसे कई बैजोड़ संस्कार अथवा तत्व प्रदान किये है जो हमारे लिए बहु-उपयोगी होने के साथ-साथ अमूल्य निधियां है जिनमें से ‘ओरणÓ एक है। यह संस्कार हमारे पूर्वजों द्वारा दी गई एक ऐसी अमूल्य विरासत है जो हमें अनेकानेक फायदे पहुंचाने के साथ-साथ जीवन में आने वाली प्राकृतिक विपदाओं से दूर करती है। ओरण बचाया जाना और उसको बचाने के लिए कोषिष करना वास्तव में मौजूदा एवं भावी पर्यावरणीय संकटों से निजात पाने की एक शानदार एवं प्रशसंनीय पहल है। वर्ष 2002 में ओरण गोचर को बचाने के लिए बाड़मेर जिले के राणीगांव में विषाल स्तर पर ओरण बचाओ आन्दोलन हुआ । जिसकी वजह से वहां की सैंकड़ों बीघा भूमि को बचाया जा सका । इसी प्रकार बाड़मेर जिले के असाड़ा बाड़मेर , भानासर आदि का ओरण बचाओ आन्दोलन आज भी प्रेरणादायी है । राज्य के खेजडली गांव का चिपको आन्दोलन हमें प्रकृति की रक्षा के लिए प्रेरित करता है । इस प्रकार के आन्दोलनों की बनिस्पत ही ओरण गोचर को संरक्षण मिल सका है ।
ओरण दिवस 26 अप्रैल को ही क्यों – राजस्थान के बाड़मेर जिला मुख्यालय से लगभग 20 कि.मी. दूर स्थित राणीगांव में वर्ष 2002 में हुए ऐतिहासिक ओरण बचाओ आन्दोलन की चिरस्मृति में प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को ओरण दिवस के रूप में मनाया जाता है । 16 वर्ष पूर्व राणीगांव में चैहटन रोड़ फांटा पर विस्तृत भू भाग में फैली धर्मपूरी जी महाराज की ओरण को भूमाफियों एवं स्वार्थी तत्वों के चुंगल से बड़ी जदोजहद के बाद मुक्त करवाई गई थी । इसी की स्मृति में प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को ओरण बचाओ आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता एवं आमजन ओरण दिवस के रूप में मनाते है । साथ ही ओरण गोचर में पूजा अर्चना की जाती है तथा ओरण में स्थित वृक्षों को रक्षासूत्र बांधे जाने के साथ ही ओरण गोचर संरक्षण का संकल्प लिया जाता है ।
वन्य प्राणियों पर बढ़ता संकट:- ओरण गोचर क्षेत्रों में पाये वाले जाने वाले वन्य जीवों का अस्तित्व खतरे में है । वर्तमान दौर की बढ़ती आपाधापी व स्वार्थ की प्रवृति के चलते इन निर्दोष व निर्मूक प्राणियों को अपनी जान से हाथ धोने पड़ रहे है। ओरण गोचर क्षेत्रों में पाये जाने वाले वन्य प्राणी यथा- हिरण, खरगोष, नेवला, तीतर, कबूतर, गौरेया, मोर, पटेपड़ी, गोह, चन्दन गोह, बाज, कुरजां, नीलगाय, लोमड़ी, चील, गुगुरराजा, टिटोळी, सोन, तिलोर, सियार, आदि का अस्तित्व इन ओरण गोचर क्षेत्रों पर ही निर्भर है । ओरण गोचर के घटते स्वरूप् ने इन प्राणियों के अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है ।
ओरण – गोचर पर बढ़ता संकट
ओरण की उत्पति व उपलब्धता की कहानी बहुत पुरानी है । ग्राम्य जीवन में ओरण का बहुत अधिक महत्व है । ओरण हमारी धरोहर है । जीवनदायिनी है , सुखदायिनी है । जीवों का पालन पोषण करती है , परन्तु वर्तमान में बदली बदली फिजां ने ओरण गोचर पर भी अपना प्रभाव डाला है । वर्तमान में ओरण गाचर पर अतिक्रमण की वारदातें बढ़ रही है । यह चिंता का विषय है । देष के किसी भी कोने में ओरण अथवा देववन के नाम से संरक्षित व सुरक्षित भू भाग को मिल जाता है । लेकिन इस दौर में ओरण गोचर अथवा देववनों का वह स्वरूप नही रहा जो कभी एक समय में था । अतिक्रमण की वजह सेे ओरण गोचर क्षेत्र सिमटते जा रहे है । अनका आकार घटने लगा है । ओरण पर हो रहे अतिक्रमण पारिस्थितिकी असंतुलन को न्यौता दे रहा है । ओरण गोचर सदियों से मानव की आवश्यकताओं को पूरा करती रही है ।
ओरण गोचर हमें विभिन्न प्रकार के खतरों से बचाती रही है । हमारी संस्कृति ने हमें ‘ त्यक्तेन भूंजिथा Ó की सीख दी है परन्तु हमने त्याग को त्याग कर भोग को गले से लगा लिया है । जिसके अपने खतरे है ।
पष्चिमी राजस्थान में फैली अनूठी विरासत ओरण गोचर इस भौतिकवादी युग में खतरे में है । जिस पर दिन प्रति दिन अतिक्रमण के मामले प्रकाष में आ रहे है । इन ओरण गोचर क्षेत्रों पर ही यहां का पशुपालन , मवेषी, पशु पक्षी आदि का गुजर बसर निर्भर है । इनके अतिक्रमण से वन्य – जीव जन्तुओं के साथ साथ पशुपालन व्यवसाय भी संकट में आ जायेगा । समूचे राजस्थान विशेषकर पष्चिमी राजस्थान में हजारों एकड. में फैली वानस्पतिक विरासत ओरण गोचर पर यहां की कई पशुपालक जातियों का जीवन का निर्वाह निर्भर है ।
ओरण गोचर क्षय के कारण:- ओरण गोचर के संरक्षण की बात के बीच इस बात का भी जिक्र करने अनिवार्य हो जिनकी वजह से ओरण गोचर क्षेत्र कम अथवा सिमटते जा रहे है । ऐसे कई कारक होते है जिनकी वजह से ओरण गोचर कम होती जा रही है । ओरण गोचर क्षय के कारणों में अकाल का आना, जलाभाव का होना, वृक्षों की कटाई, दीमक लगना, वृक्षारोपण का अभाव, सरकार की उदासीनता, स्वार्थपरता की बढ़ती प्रवृति, जनसंख्या का बढ़ता दबाव, अतिक्रमण की वारदातें, संरक्षण का अभाव आदि आदि कारक है । ओरण गोचर संरक्षण के क्षय के कारणों का समाधान ढूंढना ही ओरण गोचर संरक्षण का प्राथमिक समाधान है ।
ओरण संरक्षण के उपाय:– बाड़मेर जिले भर में पसरी आमजन के सांस्कृतिक मूल्यों की एक मिसाल ‘ओरणÓ जिसके प्रति शून्य से हो गये है। यदि इसी प्रकार का रवैया रहा तो सनातनी संस्कृति के क्षीण होने एवं पारिस्थितिकी असंतुलन उत्पन्न होने में कोई ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। ओरण गोचर का ध्यान रखना हमारा परम् और प्राकृतिक कर्तव्य है । ओरण गोचर संरक्षण के कार्य को अच्छे से अंजाम देना है। हमें ओरण गोचर के पशु, पक्षी, वन्य जीवों एवं वृक्षों के करीब जाना होगा तथा उन्हें आश्रय व संरक्षण प्रदान करना होगा ।
ओरण गोचर क्षेत्रों के संरक्षण के लिए निम्न उपायों को अपनाया जा सकता है जो इनके संरक्षण में कारगर साबित हो सकते है । जो कदम निम्न है:-
1 राज्य ओरण विकास बोर्ड का गठन करना ।
2 राज्य वार विशाल भूभाग वाली ओरणों को हैरिटेज साइट बनाना ।
3 26 अप्रैल को ओरण दिवस घोषित करना ।
4 पंचायत स्तर पर ओरण गोचर में सघन वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाना ।
5 ओरण गोचर क्षेत्रों में विद्यमान अतिक्रमणों को हटवाना ।
6 ओरण गोचर क्षेत्रों में हो रहे अवैध खनन को रूकवाना ।
7 इन क्षेत्रों में चारागाह विकसित करवाना ।
8 ओरण गोचर के लिए बजट आवंटन तथा संरक्षण के लिए त्वरित कार्रवाई करना
9 मनरेगा कार्यों को ओरण गोचर से जोडना ।
10 ग्राम पंचायत स्तर पर पटवारियों को पाबन्द कर ओरण गोचर क्षेत्रों की नए सिरे से पैमाईश करवाना ।
11. ओरण गोचर के संरक्षण के लिए इसकी महता को विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से जन जन तक पहूुचाया जावें ।
12. ओरण के विकास के लिए पुन: आमजन में नवीन ओरण गोचर निर्माण की भावना पैदा करना ।
13. प्रषासन को ओरण गोचर के प्रति संवेदन बनाना ।
14. ओरण गोचर संरक्षण के लिए एक स्पष्ट एवं कारगर सरकारी नीति बनाना ताकि ओरण गोचर संरक्षण को बल मिल सके ।