जयपुर, (दिनेश शर्मा “अधिकारी”) l राजस्थान हाई कोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा रेमदेसीविर दवा और मेडिकल ऑक्सीजन के आवंटन में राज्यों के बीच भेदभाव बरतने के मामले में दायर पत्र याचिका पर बुधवार को मुख्य न्यायाधीश इन्द्र जीत महांति और न्यायाधीश इन्द्रजीत सिंह की खंडपीठ में सुनवाई होगी। कोरोना आपदा के इस दौर में हाईकोर्ट ने याचिका को प्राथमिकता देते हुए 2 नंबर पर लिस्टेड किया है।

उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता पूनमचंद भंडारी ने पत्र के द्वारा हाई कोर्ट में याचिका पेश कर निवेदन किया है कि केन्द्र सरकार ने गुजरात को 1,63,500 रेमिडीसिविर इंजेक्शन का आवंटन किया है। जबकि वहां मरीज 84126 हैं और राजस्थान को 26500 इंजेक्शन आवंटित किए हैं। जबकि यहां एक्टिव मरीज 96000 से ज्यादा हैं । लिक्विड ओक्सीजन गुजरात को 970 मैट्रिक टन आवंटित की है और 84,000 मरीज है। राजस्थान को आवंटित 80 मैट्रिक टन , जबकि मरीज हैं 96,000 से ज्यादा। इसी प्रकार राजस्थान को 250 मीट्रिक टन ऑक्सीज़न आवश्यकता है। जबकि केंद्र सरकार ने राजस्थान को केवल 205 मीट्रिक टन ऑक्सीज़न का आवंटन किया है। जबकि राजस्थान में 96,000 एक्टिव केसेज है और गुजरात को 1661मेट्रिक टन आवंटित की है।

भंडारी ने याचिका में हाई कोर्ट से हस्तक्षेप करने कि मांग करते हुए बीमारों की संख्या के आधार पर ऑक्सीज़न एवं जीवन रक्षक दवाइयों के आवंटन कि मांग कि है क्योंकि भारतीय संविधान के मुताबिक सभी राज्यों के नागरिक भी भारत के ही नागरिक हैं और केंद्र सरकार के समक्ष सब राज्य बराबर है गुजरात के अलावा भी अन्य राज्यों को ज्यादा इंजेक्शन और ऑक्सीजन आवंटित की गई है जबकि वहां भी मरीज राजस्थान से कम है। जो की भारतीय संविधान का प्रत्यक्ष रूप से केंद्र की सरकार द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है जबकि कोरोना महामारी अंतरराष्ट्रीय रूप से इतनी बढ़ चुकी है जिस का प्रकोप भारत में विशेषकर दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है जिसके चलते मौजूदा चिकित्सकीय संसाधन और सुविधाएं अपर्याप्त साबित हो रही है जिसका नतीजा है इसे राष्ट्रीय आपदा के रूप में अप्रत्याशित और अघोषित इमरजेंसी के रूप में सरकार और पुलिस प्रशासन द्वारा आम जनता के साथ बर्ताव किया जा रहा है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने भारत के पास मौजूद तमाम संसाधनों को अपर्याप्त साबित कर दिया है। मृत्यु दर और संक्रमण की दर दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं ऐसी हालत में आमजन की निगाहें न्यायपालिका पर टिकी हुई है ,न्यायपालिका ही वह स्तंभ है, जो केंद्र और राज्य सरकारों को उनके कर्तव्यों के लिए आवश्यक दिशा निर्देश और आदेश दे सकते हैं लिहाजा न्यायालय को मौजूदा कोरोनावायरस संक्रमण की स्थिति को देखते हुए इस पर हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया है। भारतीय संविधान का संघीय ढांचा सभी राज्यों को बराबरी का दर्जा देते हुए वहां की सरकारों को संघ के अधीन रहकर केंद्र सरकार के अधीन काम करना पड़ता है जिसमें कुछ विषय केंद्र के हैं और कुछ राज्यों के विषय है जो संविधान की मूलभूत संरचना में शामिल है और भारतीय संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई व्यक्ति विशेष या राजनीतिक पार्टी अन्य तानाशाही देशों की तरह इस तरह का भेदभाव नहीं कर सकती जो संविधान की मूल भावना के विपरीत है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ की है वर्तमान में कोरोना महामारी ने राष्ट्रीय राष्ट्रीय आपदा घोषित करवा दिया है ऐसी स्थिति में सभी राज्यों का दायित्व केंद्र पर आ जाता है और केंद्र सरकार के लिए किसी भी राज्य के नागरिक शब्द की परिभाषा संविधान में प्रदत्त है ऐसी स्थिति में इस तरह का भेदभाव संविधान की मूल परिभाषा को विलोपित कर रहा है जो न्यायपालिका के हस्तक्षेप का मामला हैl गत 1 वर्ष से भी अधिक कोरोना काल में केंद्र सरकार की इस भेदभाव पूर्ण नीति के चलते विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों में मध्य प्रदेश मद्रास तेलंगाना सहित विभिन्न उच्च न्यायालय में इस राष्ट्रीय आपदा में विभिन्न मामले विचाराधीन चल रहे हैं यहां तक की सर्वोच्च न्यायालय विगत दिनों टिप्पणी कर चुका है कि “दवा और ऑक्सीजन को रोकने वाले को हम फांसी पर लटका देंगे” जो विभिन्न राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय समाचार पत्रों में हेडलाइंस के रूप में प्रकाशित हो चुका है।