PM Cares Fund

डॉ.मानचंद खंडेला

यह तो अब निर्विवाद रूप से सत्य हो गया है कि कोरोना वायरस ने संसार के सभी देशों में बर्बादी का आलम पैदा कर दिया है। अभी तो इसका इलाज खोजने के लिए ही अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। लेकिन पुख्ता सफलता नहीं मिल रही है ।आश्चर्य तो यह है कि इस वायरस ने चीन, इटली, अमेरिका जैसे विकसित देशों और ईरान व सऊदी अरब जैसे धामिक कहे जाने वाले देशों को कुछ ज्यादा प्रभावित किया है। उनकी सरकारों के द्वारा सब कुछ दाव पर लगा दिए जाने के बाद भी नियंत्रण प्राप्त नहीं किया जा सका है ।जो कुछ आंकड़े इस वायरस से मरने वालों के या पॉजिटिव होने वालों के बताए जा रहे हैं। उन पर विश्वास बिल्कुल नहीं किया जा सकता है ।अपुष्ट ही सही लेकिन तर्कपूर्ण तरीके से यह बताया जा रहा है कि चीन जैसे देश में जब 80 लाख मोबाइल फोन बंद हो गए हैं। इसका मतलब उनको काम में लेने वाले समाप्त हो गए हैं ।अमेरिका का यह आरोप निराधार नहीं हो सकता कि चीन ने अपनी साख बचाने के लिए प्रारंभिक काल में कोरोना वायरस के संबंध में बाकी दुनिया को बहुत कम जानकारी दी। जिस तरह से उसने उस पर नियंत्रण स्थापित किया उसको बहुत से लोग अमानवीय कह रहे हैं। अमेरिका ने 1.4 ट्रिलियन डॉलर का प्रावधान तुरंत इसके लिए रखा है। इसके बावजूद भी वह पूरी तरह से दहशत में है ।क्योंकि वहां भी सभी 50 राज्यों में यह फैल चुका है। इटली जैसे विकसित देश में मरने वालों को यथानुसार निस्तारित करने की व्यवस्था नहीं है। इन परिस्थितियों मे मानना ही पड़ेगा कि यह अविनाश तो हो रहा है और होगा ।हो सकता है सरकारी ,गैर- सरकारी और व्यक्तिगत प्रयासों से इस परअंतत: नियंत्रण पा लिया जाए या प्राकृतिक रूप से वह नियंत्रित हो जाए। इसके रहते हुए प्राय सभीदेशों की अर्थव्यवस्थाएं जिस प्रकार तहस-नहस हुई हैं उसका तो आंकलन लगाना भी मुश्किल है ।

इस संदर्भ में हमें भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में चिंतन और चिंता वस्तुनिष्ठ भाव से करने की जरूरत है। जब भारत में रेल, सड़क, वायु यातायात बंद हैं ,कई राज्यों को संपूर्ण लोक डाउन या कर्फ्यू तक लगाना पड़ रहा है ,करीब-करीब सारी गतिविधियां अपनी जगह ठहर गई हैं, उत्पादन प्रक्रिया मंद पड़ गई है, करोड़ों की संख्या में लोग त्वरित रूप से बेरोजगार हो गए हैं, शिक्षण संस्थाएं बंद हैं ।ऐसे में मानना पड़ेगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी इसका बहुत अधिक विपरीत प्रभाव पड़ा है। अब सोचना यह है कि जब कोरोना विदा हो जाएगा तब तक अर्थव्यवस्था में क्या-क्या अलविदा हो जाएगा। लगता है अब उत्पादन, विनिमय, वितरण ,उपभोग ,साहस, निवेश सब कुछ एक तरह से नए सिरे से प्रारंभ करना पड़ेगा ।आज परिस्थितियां ऐसी हो गई है कि सरकारें कहने को तो बहुत कुछ कह रही हैं लेकिन उनका प्रभाव व्यवहार में तुलनात्मक रूप में बहुत कम है। क्योंकि सरकारों की भी वित्तीय दृष्टि से अपनी सीमाएं हैं ।जबकि हर क्षेत्र में मांग सीमाओं से अधिक की जा रही है। ऐसे में अब मान लेना चाहिए कि जो पूंजीवादी आर्थिक नीतियां देश में चल रही थी। उन पर विराम लगाना ही पड़ेगा ।अब यह नहीं हो सकता कि हम ऐसा विकास करते रहें जहां 1% जनसंख्या देश के करीब दो तिहाई संपत्ति पर अधिकार कर ले, करोड़ों लोगों के रोजगार छीन लिए जाएं ,छोटे उद्योग धंधे बंद होने की ओर अग्रसर हो जाएं, ऑनलाइन के नाम पर सारे करोड़ों छोटे बड़े व्यापार बंद करने के लिए मजबूर होने की स्थिति में पहुंच जाएं ,सरकारें केवल विकास की बातें करती रहें लेकिन विकास के वितरण के बारे में अंधी हो जाएं। उसकी प्राथमिकताएं केवल अभी तक सक्षम लोगों के कल्याण की रही है।

अब उसको हर हालत में गरीब, उपेक्षित ,बेरोजगार ,ग्रामीण, असहाय, महिला, विद्यार्थी, मजदूर आदि वर्गों के बारे में अधिक ध्यान लगाना पड़ेगा। इसका मतलब है हर सरकार को ऐसे वर्गों के लिए अधिक से अधिक धनआवंटित करना पड़ेगा ।अब भारत में मुश्किल से 1. 5% भाग कुल बजट का स्वास्थ्य सेवाओं पर रखने से भविष्य की चुनौतियों का सामना करना असंभव सा है ।अब शिक्षण, प्रशिक्षण पर्यावरण संरक्षण गरीबों के उद्धार उपेक्षित ओं की सहायता जैसे मुद्दों पर हर हालत में बहुत अधिक करना ही पड़ेगा
अगर इसे राजनीति नहीं माना जाए दिल्ली सरकार का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है । दिल्ली सरकार ने बहुत ही अकल्पनीय उदाहरण बजट आवंटन में इन क्षेत्रों को प्राथमिकता देकर सबको बता दिया है कि अगर निष्ठा, प्रतिबद्धता ,निरंतरता, वस्तुनिष्ठता ,पारदर्शिता के साथ काम किया जाए तो वांछित उद्देश्यों और लक्ष्यों को हर हालत में प्राप्त किया जा सकता है ।जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकारों के पास धन कहां से आना चाहिए और उसको किस प्रकार , किस वर्ग पर, कितना खर्च करना चाहिए ।यह एक तरह से भारत में अकल्पनीय है कि किसी राज्य का 25% बजट केवल शिक्षा पर आवंटित किया जाए और कोरोना वायरस जैसी समस्या से लड़ने के लिए हजारों करोड़ रुपए का बजट तुरंत आवंटित कर दिया जाए। यह भी अब मान लेना चाहिए कि दिल्ली सरकार ने जिस प्रकार शासन करते हुए लोक कल्याण को हर तरह से फोकस में रखा है और उसके लिए समर्पण भाव से काम किया है। वैसा अब हर सरकार को करना ही पड़ेगा। नहीं तो अर्थव्यवस्था और जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग को बचाए रखना भविष्य में असंभव सा हो जाएगा ।समय आ गया है कि सरकारों को वित्तीय प्रबंधन के साथ ही वित्तीय प्रशासन पर ध्यान देना चाहिए। अब यह नहीं चल पाएगा कि जो बजट जिस क्षेत्र के लिए आवंटित किया है उस पर निर्धारित सीमा अवधि में वित्तीय प्रशासन की कमजोरी के कारण खर्च ही नहीं किया जाये और संबंधित अधिकारियों को किसी भी रूप से दंडित नहीं किया जाये ।

अब कुछ अवधि के लिए इस बात को भी भूल जाना पड़ेगा की वैश्वीकरण विकास के लिए आवश्यक है ।अब तो आवश्यकता किए गए विकास को समान रूप से वितरण करने की है। इसके लिए प्रचार पर कम और क्रियान्वयन पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। सरकारें अब काम करके ही प्रचारित होने की नीति पर चल सकेंगी ।जो वर्ग उपेक्षित है उसकी अपेक्षाएं बढ़ेंगी और उनका पूरा करने का दायित्व सरकारों का होगा ।विश्व की सभी सरकारें अपनी अर्थव्यवस्थाओं को और ज्यादा ध्वस्त नई होने देने के लिए प्रयासरत हैं और भविष्य के बारे में सोच रही हैं तो भारत को अब यह सोचना बंद कर देना चाहिए कि किसी अन्य देश की सहायता उसको मिलेगी। चाहे वह विदेशी निवेश हो ,विदेशी संस्थाओं का संरक्षण या सहायता हो या व्यापारिक समझौते हों हमारे हित में होंगे। अब सरकारों को बचत आधारित अर्थव्यवस्था के संदर्भ में सोचना, सरकारी खर्च अधिक करना पड़ेगा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को संरक्षण देना, निजी क्षेत्र केवल अपने स्वार्थों के लिए लाभ प्राप्त करता रहे और सरकारें देखती रहे यह जनता सहन नहीं करेगी ।अब सरकारों को बिना मतलब के खर्चों को रोकना ही पड़ेगा। जो योजना या परियोजना बनती है उसको समय आधारित बनाना ही पड़ेगा ।अधिकारियों और व्यक्तिगत जवाबदेही निर्धारित करनी ही पड़ेगी ।अब मंत्री केवल आदेश देने तक ही सीमित नहीं रह सकेंगे। अब शासकों और प्रशासकों के द्वारा विभिन्न बहानों से अपने स्वार्थों की पूर्ति करने पर अंकुश लगाना ही पड़ेगा। सरकारें अब बिना मतलब के वीआईपी लोगों की संख्या को कम करने के लिए मजबूर होकर रहेगी ।जो अनुत्पादक खर्चे कानून व्यवस्था को बनाए रखने के नाम पर किए जाते हैं उन पर नियंत्रण करना समय की मांग हो गई है ।अब केवल राजनीति करने के लिए मुद्दा उछालने की नीति को हर सरकार को छोडना पड़ेगा।
यह तो सिद्ध सत्य है कि प्रत्येक देश की राजनीति उसकी अर्थ नीति से गहरी जुड़ी हुई होती है ।अब भारत में केवल राजनीति करने के लिए हर बात पर सरकार की आलोचना करने या विपक्ष को लज्जित करने, सही मांग करने वाले को भी डंडे के जोर पर रोक देने ,अनुत्पादक कार्यों पर आस्था के नाम पर खर्च करते रहने, सरकारी सही है ,बाकी सब गलत इस नीति को त्यागने, विधायिका में विधायकों एवं सांसदों के द्वारा गंभीर होने, उनको मिलने वाली सुविधाओं को निरंतर रूप से कम करते रहने ,शासन चलाने के लिए कुछ भी खर्चा करना सही है इस नीति को त्यागने के अलावा और कोई विकल्प भविष्य के लिए नजर नहीं आ रहा है ही पड़ेगा। जो योजना या परियोजना बनती है उसको समय आधारित बनाना ही पड़ेगा ।अधिकारियों और व्यक्तिगत जवाबदेही निर्धारित करनी ही पड़ेगी ।अब मंत्री केवल आदेश देने तक ही सीमित नहीं रह सकेंगे। अब शासकों और प्रशासकों के द्वारा विभिन्न बहानों से अपने स्वार्थों की पूर्ति करने पर अंकुश लगाना ही पड़ेगा। सरकारें अब बिना मतलब के वीआईपी लोगों की संख्या को कम करने के लिए मजबूर होकर रहेगी ।जो अनुत्पादक खर्चे कानून व्यवस्था को बनाए रखने के नाम पर किए जाते हैं उन पर नियंत्रण करना समय की मांग हो गई है ।अब केवल राजनीति करने के लिए मुद्दा उछालने की नीति को हर सरकार को छोडना पड़ेगा।
यह तो सिद्ध सत्य है कि प्रत्येक देश की राजनीति उसकी अर्थ नीति से गहरी जुड़ी हुई होती है ।अब भारत में केवल राजनीति करने के लिए हर बात पर सरकार की आलोचना करने या विपक्ष को लज्जित करने, सही मांग करने वाले को भी डंडे के जोर पर रोक देने ,अनुत्पादक कार्यों पर आस्था के नाम पर खर्च करते रहने, सरकारी सही है ,बाकी सब गलत इस नीति को त्यागने, विधायिका में विधायकों एवं सांसदों के द्वारा गंभीर होने, उनको मिलने वाली सुविधाओं को निरंतर रूप से कम करते रहने ,शासन चलाने के लिए कुछ भी खर्चा करना सही है इस नीति को त्यागने के अलावा और कोई विकल्प भविष्य के लिए नजर नहीं आ रहा है।