

गुजरात, हिमाचल विधानसभा चुनाव व दिल्ली एमसीडी चुनाव के लिए मतदान हो गया। कल गिनती होगी और चुनाव परिणाम भी आ जायेंगे। सरकारें बन जायेगी और फिर पुराना राग गाया जाने लगेगा। ब्रेकिंग की ताबड़तोड़ लड़ाई में मतदान पूरा होते ही इलेक्ट्रॉनिक मिडिया ने एक्जिट पोल भी दिखाना आरम्भ कर दिया। भले ही पिछले काफी चुनावों से एक्जिट पोल की पोल खुलती रही है मगर ये रिवायत तो सभी चेनल निभा रहे हैं। मसला टीआरपी के साथ सत्ता के प्रति निष्ठा दिखाने का भी है। क्योंकि अब पत्रकारिता मिशन तो कम रह गई है, व्यवसाय अधिक हो गई है। जिसका नुकसान केवल और केवल जनता को उठाना पड़ रहा है।
एक्जिट पोल के अनुसार यदि परिणाम भी आते हैं तो विचार के लिए कई बिंदु सामने आते हैं। सबसे पहले बात महंगाई की। अर्थशास्त्र के आंकड़ों में न भी जाएं तो इस तथ्य से कैसे इंकार करेंगे कि पेट्रोल व डीजल 100 रुपयों के पार है। जबकि कुछ वर्षों पहले ही इसके दाम आधे थे। वो वक़्त भी था जब पेट्रोल व डीजल की कीमतों में आधे का फर्क रहता था। इसकी वजह देश का किसान था। किसान डीजल का अधिक उपयोग खेती के लिए करता था तो सरकार उस पर सब्सिडी देती थी। आम आदमी भी पेट्रोल के बजाय डीजल से चलने वाली कार खरीदा करता था ताकि कम खर्चे में ये सुविधा ले। मगर अब तो पेट्रोल व डीजल का मोल लगभग बराबर हो गया। भावों की इस ऊंचाई को लोकतंत्र का गुण समानता तो नहीं माना जा सकता। मगर तीनों चुनाव में पेट्रोल व डीजल के दाम प्रयासों के बाद भी चुनावी मुद्दा नहीं बन सके।
घरेलू गैस सिलेंडर तो एक हजार के पार हो अपना मोल ढाई गुना कर चुका। ये सिलेंडर हर घर, हर छोटे दुकानदार की जरूरत है। मगर तीनों चुनाव में प्रयास करने के बाद भी विपक्षी दल इसको चुनावी मुद्दा नहीं बना सके। दाल, तेल, सब्जियां, आटा आदि की महंगाई से कोई घर अंजान नहीं, मगर फिर भी वो चुनाव के समय जब मतदान करने जाता है तब इसको ध्यान में ही नहीं रखता या राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों की ये चतुराई है कि वे अपनी दूसरी बातों से इस मुद्दे को भुलवा देते हैं। एक्जिट पोल के कयास तो यही संकेत दे रहे हैं। फिर भी लोग अपने अपने पक्ष की जीत – हार पर बहस कर रहे हैं। चीजों के दाम यानी महंगाई पर नहीं। आर्थिक क्षेत्र के आंकड़ों को भी देखें तो खुदरा महंगाई डराने वाली है, मगर ये चुनावी मुद्दा नहीं बन रहा।
कोरोना के बाद सरकारी और निजी क्षेत्रों में बेतहाशा रोजगार खत्म हुए। पढ़े लिखे बेरोजगारों के हर राज्य के आंकड़े तो भयावह है। गुजरात हो या हिमाचल, बेरोजगारी का बहुत बोलबाला है। धुंआधार प्रचार के बीच बेरोजगारी तो कहीं खो सी गयी। एक्जिट पोल तो यही साबित कर रहा है। सरकारी आंकड़े देखें तो भी बेरोजगारी शर्म से सिर झुकाने को बाध्य करती है। युवा शक्ति का विकास में उपयोग नहीं हो रहा, प्रचार में उपयोग हो रहा है। वो भी कई बार हेट स्पीच तक पहुंच जाता है। माननीय न्यायालय को भी जिस पर तल्ख टिप्पणी करनी पड़ती है।
कुल मिलाकर जब तक चुनाव जाति, धर्म, सम्प्रदाय, झूठी बातों पर लड़ें जाते रहेंगे तब तक ये सभी तो चुनावी मुद्दे नहीं बन सकते। न लोकतंत्र सच्चा होकर सामने आ पायेगा। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि इसके लिए कोई एक दल या सत्ता ही जिम्मेवार नहीं है, सबकी जिम्मेवारी है। जातिगत समीकरण के आधार पर ही सब उम्मीदवार तय करते हैं, वहीं से सुधार जरूरी है। यदि मूल मुद्दों के साथ चुनाव नहीं होगा तो कभी ये तो कभी वो जीतते रहेंगे। असल में जीत तो आम आदमी की होनी जरूरी है, जिसके लिए सभी राजनीतिक दलों को चिंतन कर सामूहिक निर्णय लेने की है।
- मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
वरिष्ठ पत्रकार
