

भूमिका
वैदिक वांग्मय के अनुसार ‘‘आराधनानां सर्वेषां विष्णोः आराधनं परं’’ अर्थात् संपूर्ण विश्व में विष्णु की स्थिति ही सर्वोपरि है। विश्णु की इच्छा से ही सृष्टि चलायमान है एवं इसके सारे अवयव कार्य करते हैं। अतः सृष्टि में जब भी विष्णु अवतार के रूप में जन्म लेते हैं तो उसका एक विशेष उद्देश्य, कारण तथा महत्त्व होता है। अपने बल के प्रदर्शन को लेकर विष्णु अवतार हो तो मामला अवश्य गंभीर होना चाहिये परंतु उस अवतार को समेटने की जगह उसे धरा पर चिरकाल के लिए रहने दे तो मनीषियों के लिये यह घटना मंथन का महत्त्वपूर्ण विषय तो होगा ही।
अवतार एवं तत्कालीन घटनाक्रमराम का जन्म बिहार के जमनिया (जमदग्नि) नामक स्थान पर हुआ था। वे भृगुवंशी थे तथा रिच्चिक ऋशि के पुत्र एवं ऋषि जमदग्नि-रेणुका की संतानों में से एक थे। वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया जिसे अक्षय तृतीया भी कहते है, के दिन भगवान परशुराम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। वे अत्यन्त विद्वान, सुदर्शन तथा सुडौल कद-काठी के थे। अपने आकर्शक व्यक्तित्व के कारण उनको पिता की तरफ से ‘राम’ नाम प्रदान किया गया। अपने पिता से उन्होंने धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त की परंतु उनका प्रिय अस्त्र परशु ही था। कालान्तर में उन्हें सदैव परशु धारण करने के कारण परशुराम नाम से लोकजगत में ख्याति प्राप्त हुई। परशुराम को दीर्धआयु प्राप्त हुई थी इसीलिये वे रामायण काल मेें सीता-स्वयंवर में शिव-धनुष के टूटने के बाद अचानक उपस्थित नज़र आते हैं और क्रोध में राम तथा दशरथ से संवाद करते हैं तो महाभारत काल में छलबल से ब्राह्मण का वेश धारण किये कर्ण को धनुर्विद्या सिखाते दिखाई देते है। भगवान परशुराम का जन्म अथवा अवतार कोई सामान्य घटना नहीं थी। भगवान परशुराम वेदाध्यायी उद्भट विद्वान, शास्त्रज्ञ, अस्त्र-शस्त्र के निर्माण एवं संचालन और उपयोग में निपुण, निडर, कुशल योद्धा, आज्ञाकारी, वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता, समाज-सुधारक तथा प्रकृति-प्रेमी थे। भगवान परशुराम का व्यक्तित्व प्रसिद्धि से कोसो दूर अपनी प्रतिभा से सुदीप्त है। उन्हें किसी की अनुशंसा या विवरण की प्रतीक्षा नहीं थी, वे स्वयं प्रकाशित थे। वे प्रतिभा के पर्याय और पुरुषार्थ ज्ञान एवं कौशल के ज्वलंत उदाहरण थे। कभी-कभी कुछ घटनायें जीवन में कुछ इस तरह से घटती है कि उनसे जीवन की दशा-दिशा में सदा-सदा के लिए परिवर्तन आ जाता है। हुआ यूं कि एक बार कार्तवीर्य अर्जुन शिकार करते-करते ऋषि जमदग्नि के आश्रम में जा पहुंचा। आश्रम की व्यवस्था देख ऋषि की प्रेमपूर्वक की गई आवभगत पर गौर न करते हुए उसने ऋषि से आश्रम की सम्पन्नता का रहस्य पूछा तो इस पर ऋषि ने भोलेपन से प्रत्युत्तर दिया कि यह सब सुरभि नामक दैवीय गाय का प्रताप है। इस पर कृतज्ञता प्रकट करने के स्थान पर अर्जुन ने ऋषि की पिटाई कर उससे उसकी गाय छीन कर चला गया। जब परशुराम अपने आश्रम लौटे तो उन्हें उनके पीछे घटित हुई घटना का पता चला तो वे अत्यन्त क्रोधित हुए तथा परषु उठाये अर्जुन के महल की तरफ चल दिये और वहां से अपनी गाय छुड़ा लाये। अर्जुन ने इस अपमान का बदला लेने का निश्चय किया। एक दिन जब परशुराम जंगल में समिधा की लकडि़यां इकट्ठी करने गये तो उनके पीछे अर्जुन ने आश्रम पर अपने सैनिकों सहित हमला बोल दिया और सुरभि गाय को छीन जमदग्नि को उसके संपूर्ण परिवार सहित मौत के घाट उतार दिया। ऋषि जमदग्नि को तो उसी हवन कुण्ड में जला कर मार दिया गया जहां वे यज्ञ कर रहे थे। सांझ पड़े जब परशुराम आश्रम लौटे तो अपने परिवार का विनाश देख अनंत पीड़ा से भर उठे और अर्जुन को सबक सिखाने के लिए परशु ले कर उसके महल की ओर चल पड़े तथा अकेले ही अर्जुन तथा उसके एक हजार पुत्रों को अपने परशु से मार डाला।
क्षत्रिय संहार एक मिथ्या अवधारणा
शंभुनाथ पाण्डेय के अनुुसार भगवान परशुराम के बारे में एक मिथ्या तथ्य यह है कि उन्होंने पृथ्वी को 36 बार क्षत्रियविहीन कर दिया। अगर यह तथ्य सत्य होता तो सूर्यवंश के दशरथ, कौशिक गोत्रीय गाधि, विश्वामित्र तथा विदेह के जनक आदि कैसे बचे रह गये? शास्त्रानुसार केवल आर्यावर्त में सहस्रराम अर्जुन के अलावा किसी अन्य क्षत्रिय को मारने की चर्चा किसी भी ग्रंथ में देखने को नहीं मिलती।
सीता स्वयंवर के समय परशुराम जी के प्रवेश का वर्णन तुलसीदास जी रामचरितमानस में यूं लिखते हैं कि –
‘‘पितु समेत कहि कहि निज नामा, लगे करन सब दण्ड प्रनामा।’’
परशुराम जी के जनक-दरबार में प्रवेश करते ही सभी राजा अपने-अपने पिता एवं कुल का परिचय देते हुए उन्हें दण्डवत प्रणाम करने लगे। इससे स्पष्ट होता है कि उपस्थित राजा उनसे त्रस्त नहीं थे अतः यह मानना कि परशुराम जी ने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन किया, संभव नहीं जान पड़ता। परशुराम जी की चर्चा करते हुए महर्षि व्यास श्रीमद्भागवत में लिखते हैं कि –
‘‘विलप्येवं पितुुर्देहं निधाय भातष्सु स्वयम्, प्रगष्हय परषुं रामः क्षत्रान्ताय मनो दधे।’’
यज्ञ अग्नि में जलते पिता और भाइयों के शवों को देख परशुराम ने विलाप किया और परशु ग्रहण राज सत्ता को समाप्त करने का मन बनाया, अर्थात् परशुराम ने राजक्षत्र में परिवर्तन का संकल्प लिया। अवतारों की चर्चा के प्रकरण में श्रीमद्भागवत में परशुराम की चर्चा भगवान विष्णु के सोलहवें अवतार के रूप में की गई है। जैसा कि महर्षि व्यास लिखते हैं –
‘‘अवतारे शोडशमे पश्यन ब्रह्मद्रुहो नृपान, त्रिससकृत्वः कुपितो निःक्षत्रं अकरोन्महीम्।’’
विद्वानों का तिरस्कार करने वाले राजाओं की स्थिति को देखकर क्षुब्ध श्री परषुराम ने समस्त भू मंडल में राजसत्ता में परिवर्तन किया या पृथ्वी को निः क्षत्र किया, इसका वास्तविक उद्देश्य निरर्थक स्वामित्व से भूमि को मुक्त करना था ताकि उनका सही उपयोग अथवा जनहित में दोहन हो सके। परशुराम जी की स्वयं राजा बनने की कोई इच्छा नहीं थी। दुराचारी राजा से वे जमीन छीन कर उसका सही उपयोग करने वाले को वे जमीन दे देते थे। –
‘‘भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही, बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।’’ (रामचरितमानस)
जयदेव कृत दशावतार स्त्रोत्र में भी परशुराम के बारे में कहा गया है कि भृगुपति ने धरा को, क्षत्रियों के पाप से त्रस्त संसार की पीड़ा से मुक्त किया, न कि क्षत्रियों से। –
‘‘क्षत्रिय रुधिरमये जगदपगत पापम्, स्नपयसि पयसि शमित भवतापम्,
केशव धृत भृगुपति रूप, जय जगदीश हरे।’’ ( दशावतार स्त्रोत्र, 6 – जयदेव )
संस्कृत भाषा और व्याकरण के विद्वान क्षत्र का अर्थ राज-क्षत्र से लेते हैं, परंतु प्राचीन काल में भू-स्वामित्व के कारण और जन-समूह की अध्यक्षता के कारण राज्य के अधिपति को ‘भूपति’ अथवा ‘नृपति’ कहा जाता था। इस षासन व्यवस्था का कालांतर में दुरुपयोग होने के कारण क्षत्रिय निरंकुश होकर अत्याचार करने लगे। वशिष्ठ और जदमग्नि जैसे अरण्य वासी मनीशियों पर भी जब अत्याचार होने लगे तो फिर सामान्य जनता के कष्टों का अनुुमान मात्र ही लगाया जा सकता है। जन समूह ने कृषि जैसे आवश्यक कार्य को ही बंद कर दिया, परिणास्वरूप मिथिला जैसे जल-बहुल क्षेत्र में भी अकाल पड़ गया और जनक को भी उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए स्वयं खेत में जाकर हल चलाना पड़ा। अतः परशुराम का संकल्प इसी पृष्ठभूमि से देखना चाहिये।
भगवान परशुराम द्वारा क्षत्रियों को मारने अथवा संपूर्ण पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने की बात किसी भी ग्रंथ में नहीं कही गई है। वास्तव में तत्कालीन व्यवस्था के अनुसार भूमि का उपयोग ठीक से नहीं हो पा रहा था। भू-स्वामित्व निरर्थक एवं उत्पीड़क था। उत्पादन बंद था तथा प्रजा अकाल और भूख से त्रस्त थी। ऐसे समय में परशुराम जी ने भू-सुधार के प्रयास किये तथा भू-स्वामित्व को दुष्ट,अन्यायी ‘भूपतियों’ से मुक्त करवा कर उसे वास्तव में कृषि धर्म निभाने वाले लोगों को दे दिया। यह अकेले शायद ही संभव हो पाता, अतः इस भू-सुधार आंदोलन ने शीघ्र ही महत्त्वपूर्ण तथा व्यापक जन आंदोलन का रूप ले लिया। जनता के अपार समर्थन के कारण यह सफल रहा। इस आंदोलन के बाद राजाओं का भूमि पर से स्वामित्व समाप्त कर दिया गया तथा उनके अधिकार एवं कर्त्तव्य सीमाओं के संरक्षण तक ही सीमित हो गया। अब वे केवल भूप या नृप अर्थात् पालक या रक्षक बन गये थे। विषेशज्ञों ने जंगलों से लौटकर कृषि क्षेत्र में नये-नये उत्पाद प्रारंभ किये। स्वयं विश्वामित्र ने अनाज की कई नई किस्मों का निर्माण किया जो आज भी उनके नाम पर विश्वामित्र अन्न कहलाते हैं। इस तरह यह भूमि सुधार की अपने आप में एक अभूतपूर्व क्रांति थी। इसी क्रांति को अनेक सदियों तत्पश्चात् मौर्य काल में ही चाणक्य द्वारा तथा बाद में शेरशाह सूरी और समकालीन महाराज टोडरमल तत्पश्चात् विनोबा भावे ने पचास वर्ष पूर्व भूदान आंदोलन के रूप में प्रारंभ किया।
शस्त्रों के अनुसंधानकर्ता भगवान परशुराम
सैन्य बल विकास, समृद्धि और शांति का पोषक होता है। शांति आवश्यक है परंतु उसकी रक्षा के लिए सैन्य शक्ति जरूरी है। बाहुबल सार्वभौमिकता का प्रतीक है। क्षत्रियों द्वारा देवी दुर्गा की आराधना शक्ति की सृजनात्मक प्रतीक के रूप में हमेशा से होती आई है। शंभु नाथ पाण्डेय के अनुसार अस्त्रों-शस़्त्रों का प्रयोग आवश्यकतानुसार होना चाहिये। इस क्षेत्र में नये अनुसंधान की निरंतर आवश्यकता है। भगवान परशुराम ने युद्ध के क्षेत्र में अनेक अनुसंधान किये। उन्होंने कई नये अस़्त्रों का आविष्कार किया। शस्त्रों में परशु, तलवार, गदा आदि तथा अस्त्रों में जो फेंक कर चलाये जाते हैं- भाला, धनुष-तीर, शूल आदि का आविष्कार भगवान परशुराम ने ही किया था। ये सभी तत्कालीन साधारण लकड़ी से बने थे। आयुधो में लाठी या गदा धातुओं से बनाई जाती थी। विहार में लोहे की प्रचुर उपलब्धता के कारण इसका अनुसंधान, निर्माण तथा विक्रय भी होता था। यही कारण था कि मगध में सशक्त सैन्यबल और आर्थिक संपन्नता थी। यह विदेशी व्यापार या निर्यात का मुख्य अंश था। सामान्य अस्त्रो के अलावा दुर्जन समूह के विनाश हेतु भी उन्होंने विनाशकारी शस्त्रों का निर्माण किया। जैसे- मानवास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि। ये अस्त्र आधुनिक अस्त्रों से भी उन्नत थे। कुछ रासायनिक अस्त्रों जैसे जृम्भास्त्र (जिसके प्रहार के बाद जंभाई या नींद आने लगती थी ) या सर्पास्त्र अथवा नागास्त्र (जिस पर सांपों का विष लगाकर अथवा प्रत्यक्ष रूप से सांप ही छोड़े जाते थे) का वर्णन भागवत पुराण में आता है। इनकी संहारक क्षमता तथा नियंत्रण एवं छोड़ने के बाद उपसंहार की क्षमता आधुनिक विज्ञान के युग में अब तक संभव नहीं हो पाई है। इन सब हथियारों के ज्ञाता और प्रयोक्ता होने के कारण भगवान परशुराम अजेय माने जाते हैं। उनके प्रमुख शिष्यों में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण आदि भी इसी कारण दुर्जेय माने जाते हैं।
वर्तमान प्रासंगिकता
सभी अवतार अपनी लीला समाप्त होने के बाद अनंत में पुनः विलीन हो गये। भगवान परशुराम अभी तक स्वधाम क्यों नहीं लौटे? इसे स्पष्ट करना आवश्यक है। परशुराम जी ने जितने संकल्प लिए वे समाज विकास की शृंखला के नियामक हैं। ये सभी प्रयास निरंतर चलने वाले हैं। शासकों पर आध्यात्म का अंकुश, शौर्य या प्रतिभा का सम्मान, सैन्य बल का निरंतर आधुनिकीकरण, प्रशिक्षण एवं अनुसंधान तथा इसके दुरुपयोग पर कड़ी नज़र, प्रकृति और मानव के बीच संतुलन तथा सबसे महत्वपूर्ण संदेश कि जीवन के उत्तरार्ध काल में सक्रियता से दूर संरक्षण पर कार्य करना चाहिये। समाज ने जो उसे दिया है, उसे लौटाना चाहिये। शास्त्रानुसार देव पितृ और ऋषि ऋण के रूप में इसका प्रतिदान आवश्यक है। यह कार्य एक बार नहीं बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी होना चाहिये।
परशुराम जी ने प्रतिभा को सर्वोपरि माना। प्रतिभा और योग्यता का सम्मान आवश्यक है। पश्चिमी देशों की तकनीकी श्रेष्ठता और समृद्धि का आधार यही है। नवीन विचार प्रगति के लिए आवश्यक है। अगर मेधा की लगातार उपेक्षा होती रही तो फिर यह समाज की अपूरणीय क्षति होगी। ऐसा समाज अधोगामी और पतनोन्मुख हो जाता है। परषुराम जी ने इन्ही आदर्शो को प्रतिपादित किया और उनका अनुसरण करने हेतु अभियान चलाया। केवल एक बार ऐसा करने से कार्य पूरा नहीं होता है, यह काम बार-बार लगातार कभी-कभी तो नये रूपों में करना होता है। अतएव परशुराम जी को हमारे बीच रहने की बाध्यता है। सभी अवतार अपना कार्य पूरा होने पर अपनी लीला को समेट लेते हैं, परंतु परषुराम जी का संकल्प अभी भी बाकी है। यही कारण है कि परशुराम जी कालजयी हैं। समय का उन पर कोई असर नहीं होता है। उनका कार्य समाप्त होते ही सृष्टि अधोगामी हो कर पतन के राह पर चल पड़ेगी। बस, इसी कारण परशुराम जी चिरंजीवी है। एक मनीषी जो अनंत काल पूर्व से प्रकृति मनुष्य और समाज के संरक्षण हेतु कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से अपने कार्य में संलग्न है।
सारांश
परशुराम जी का जीवन-दर्शन व्यावाहारिक है। इसमें आध्यात्म एवं व्यक्ति की प्रभुता का सम्मान है। उन्होंने जीवन से दूर भागने वाले लोगों का आह्वान किया कि वे जीवन की मुख्य धारा में आये। व्यवहारहीन दर्शन निरर्थक होता है। समाज को स्थिर रखने के लिए आध्यात्म और आयुध दोनेां का सामंजस्य आवश्यक है। विद्वानों का कर्त्तव्य समाज के ऊपर अपनी दृष्टि रखने तथा शासकों का उचित मार्गदर्शन करने का है। निरर्थक युद्ध से समाज को कोई लाभ नहीं है। सशक्तिकरण से ही समाज उन्नति करता है। व्यक्ति का सम्मान उसकी प्रतिभा से होना चाहिये, न कि उसकी आयु अथवा वंश से। मेधा का सम्मान समाज की उन्नति और समृद्धि का संदेशवाहक है। इससे स्थिरता आती है और नवीन विचारों से उत्तरोतर प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है। मेधा और क्षमता का कौशल के असम्मान और उपेक्षा के परिणाम ही सामाजिक अधोगति के उत्प्रेरक का काम करते हैं। परशुराम जी आज भी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है। परशुराम जी का संघर्ष नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की जिजीविशा का परिचायक है। ब्राह्मणों के आराध्य देव की जयंति के उपलक्ष्य में यात्रायें, जुलूस एवं भव्य कार्यक्रम किये जाते हैं। सभी कुल के लोग भी परशुराम जी का गुणगान करते हैं। हिन्दु धर्म के पुनरुद्धार में महत्ती भूमिका है।पण्डित नथमल पुरोहित के अनुसार भगवान परशुराम परम शैव, अभय-अजय तथा अप्रतिम तेज वाले ब्राह्मण कुलीय सनातनी है, उनके सिद्धांतों एवं वैचारिक क्षमता की आज के युग को नितांत आवश्यकता है।
‘‘तप-त्याग धारण कर ,बना श्रेष्ठ ज्ञानी वो।
पठन-पाठन में निपुण, बना पूज्य प्राणी वो।
सबसे श्रेष्ठ ब्राह्मण, निर्भय धनुषधारी राम।
वेदों का विद्वान, जय हो परशुराम।
शोध संदर्भ
1-कल्याण का हिन्दु संस्कृति विशेषांक पृष्ठ 912-13.
2-सनातन दर्पण पत्रिका के आलेख भगवान परशुराम जयंति, पं. नथमल पुरोहित पृ.सं. 15.
3-शंभु नाथ पाण्डेय का आलेख प्रिण्ट मिडिया द्वारा.
4-ब्राह्मण संगठन के सदस्यों के मौखिक चर्चा से प्रेरित. डॉ. कृष्णा आचार्य, उस्ताबारी,बीकानेर(राज.) मो. 8619402147