साहित्य वर्तमान में सामाजिक रूपांतरण का नियामक नहीं रहा – डॉ कुसुम

जयपुर, ( ओम एक्सप्रेस)।सुप्रसिद्ध विचारक और साहित्यकार डॉ.नरेन्द्र शर्मा ‘कुसुम’ ने कहा है कि साहित्य का अंकुर संवेदना की उर्वर भूमि में बिरवा बन कर प्रस्फुटित होता है और एक विराट रूप धारण कर लोक मंगल का विधायक बनता है। इस दृष्टि से साहित्य सर्वात्मना लोक हितकारी और लोक कल्याणकारी होता है। साहित्य समाज में क्रांति को जन्म देता है। कुत्सित साहित्य समाज में मलिनता का कर्दम पैदा करता है। इसलिए साहित्य की भूमिका सार्वजनिक एवं सार्वभौमिक रूप से निर्विवाद है। सार्वजनिक रूपांतरण में विडंबना यह है कि साहित्य आज सामाजिक रूपांतरण का नियामक नहीं रहा।
डाॅ. कुसुम ‘’मुक्त मंच’’ की 59 वीं संगोष्ठी में ‘‘सामाजिक रूपान्तरण में कला और साहित्य की भूमिका‘‘ पर अध्यक्ष के रूप में बोल रहे थे। हंस योगिनी डाॅ. पुष्पा गर्ग के सान्निध्य में ‘शब्द संसार’ के अध्यक्ष श्री श्रीकृष्ण शर्मा ने संयोजन किया।
प्रखर पत्रकार और चिन्तक सुधांशु मिश्रा ने कहा कि यथास्थिति से आगे समाज में दो ताकतें काम करती रहती हैं-एक रुढ़िवादी और दूसरी प्रगतिकामी। असल चीज तो आचरण है। आज साहित्यकार राजनीतिज्ञों की परिक्रमा कर रहा है जिससे लोकहित का धूमिल होना स्वाभाविक है।
वरिष्ठ आईएएस (से.नि.) डॉ. सत्यनारायण सिंह ने कहा कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया कला और साहित्य की सृजनात्मकता से दूर तक प्रभावित होती है परन्तु देखने में आ रहा है कि साहित्य-कला का स्थान राजनीतिक विचारधाराओं ने ले लिया है जो चिंता का विषय है। आईएएस (से.नि.) अरुण ओझा ने अजंता एलोरा की कलाकृतियों, एमएफ हुसैन की चित्रकला, किशनगढ़ की ‘बणी-ठणी’ के माध्यम से सिद्ध किया कि हर काल में साहित्य और कला मनुष्य में मानवोचित गुणों का प्रक्षेपण करती है।
वरिष्ठ व्यंग्यकार और मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी फारूक आफरीदी ने कहा कि कला साहित्य की उन्नति प्रोन्नति का दायित्व हम सबका है परन्तु शासन यदि कला साहित्य को बढ़ावा देता है तो श्रेष्ठ नागरिकों की प्रक्रिया तीव्र होती है। रचनात्मक, भावात्मक और सृजनात्मक कार्यों की अपेक्षा राजनीति में अधिक ध्यान देने से सामाजिक विकृतियों को बल मिल रहा है।
वित्तीय सलाहकार राजेंद्र कुमार शर्मा ने महाकवि बिहारी को उधृत करते हुए कहा कि साहित्य की ताकत है कि महाकवि के एक दोहे ने कर्तव्यच्युत शासक को अपने कर्तव्य का भान कराया। साहित्य ऐसे सैंकड़ों उदाहरणों से भरा पड़ा है। मोटिवेटर पुनीत भटनागर ने कहा कि वीर गाथाकाल की शौर्य कथाएँ हमें आज भी प्रेरित और प्रोत्साहित करती हैं।
चिन्तक इंद्रकुमार भंसाली ने कहा कि आज साहित्य और कला जनता और सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है। आज हिंदू-मुसलमान, का राग खुले आम अहर्निश अलापा जा रहा है जिससे भाईचारा, हिन्दू मुस्लिम एकता खतरे में पड़ गयी है। आवश्यकता सत्साहित्य के निर्माण की है।
संगोष्ठी का संयोजन करते हुए श्रीकृष्ण शर्मा ने कहाकि ज्यों-ज्यों ज्ञान, विज्ञान, मनोविज्ञान, आयुर्विज्ञान जैसे अनेक विज्ञानों का प्रक्षेपण हमारे जीवन में होता जाता है त्यों त्यों सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया तीव्र होती जाती है। सतत परिवर्तनशीलता प्रकृति का गुण है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपनी कृतियों के माध्यम से समाज की जड़ता को दूर करने का काम किया और धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता पर प्रहार कर सामाजिक सद्भाव को समुन्नत किया। ‘’सिहासन खाली करो कि जनता आती है’’ ये बात रामधारी सिंह दिनकर ही कह सकते थे।

संगोष्ठी में रमेश खंडेलवाल, डॉ.मंगल सोनगरा और डॉ. जनकराज स्वामी, इंजी. डी.पी. चिरानिया ने भी अपने विचार रखे। आईएएस (से.नि.) विष्णुलाल शर्मा ने आभार जताया।