– राजेंद्र सोनी पत्रकार चंडीगढ़
जब से मनुष्य इस धरती पर वजूद में आया हैं तब से ही सुरक्षा और न्याय से जुड़ी कथा कहानियां युगों युगों से इतिहास का हिस्सा बनती रही हैं। पिछले समय में राजा – महाराजाओं के दरबार हों या फिर कबीलों के गुट, हर जगह जनता को न्याय तथा सुरक्षा मुहैया करवाने के कुछ नियम कानून बनाए गए थे। यही वजह है कि जनता को न्याय तथा सुरक्षा करवाने वाले राजा, महाराजा तथा महापुरूषों के नाम आज भी न केवल प्यार और आदर सत्कार के साथ लिए जाते हैं बल्कि कई जगह तो इनकी पूजा अर्चना भी की जाती है। न्याय के लिए कानून बनाए गए हैं तथा समय समय में इनमें आवश्यकतानुसार बदलाव किए गए हैं। राजाओं के दरबार की जगह न्यायपालिका तथा राजाओं के निजी दरबारियों की जगह पुलसिया तंत्र नें ली है जिसका मौजूदा समय में काम आमजन को कानून के दायरे में रहते हुए सुरक्षा मुहैय्या करवाना और उन्हें नियम कानून की पालना करवाना है। मगर आज सोचने की जरूरत है कि क्या सुरक्षा देने और कानून लागू करवाने वाला पुलिस निजाम, जिसे न्याय की पहली सीढ़ी माना जाता है, क्या वाकई अपना कर्तव्य निभा रहा है तो बेझिझक जवाब आएगा कि कतई नहीं। हो सकता है प्रशासनिक ढांचे के अन्य विभाग विभाग भी अपने कर्तव्य से भाग रहे हों और भ्रष्टाचार में लिप्त हों तथा लोगों के शोषण में मसरूफ हों मगर पुलिस जिसने सुरक्षा तथा न्याय दिलाना ही है, उससे कोताही की उम्मीद तो कतई नहीं की जा सकती। पुलिस विभाग के अधिकारी हों या कर्मचारी, उन्हें शक की नजर से देखा जाता है और अक्सर लोगों से कहते सुना जाता हैं कि ‘छोडो यार’ पुलिस के साथ दोस्ती भी बुरी और दुश्मनी तो है ही। पर यह धारणा वास्तविक बन चुकी है तो समझो कि इनसे न्याय तथा सुरक्षा की उम्मीद है ही नहीं। फिर जिस समाज में न्याय तथा सुरक्षा नहीं है तो वह समाज रहने लायक क्यों और कैसे? इसके साथ ही राज्य अथवा देश के विपरीत कैसे माना जाए? यह सवाल आज हर उस इंसान के जेहन में कौंध रहा है, जिसे कि न्याय और सुरक्षा दोनों की ही दरकार है।
यह सच है कि हालात पहले से बदतर हो चुके हैं। आज आम सज्जन पुरूष अथवा महिला पुलिस थाना जाने से कतराते हैं। गर चले भी जाएं तो उन्हें किसी से अच्छे व्यवहार की उम्मीद तो क़तई नहीं होती। पुलिसकर्मी थानों में जो गंदी शब्दावली का प्रयोग करते हैं वह सभ्य समाज का हिस्सा नहीं होती। पुलिसकर्मी जिस तरीके से मुकद्दमों की तहकीकात करते हैं तथा प्रताड़ित करते हैं वह मानवीय अधिकारों के बिल्कुल विपरीत होता है, भले ही आजकल माननीय न्यायालयों ने इस संबंध में दिशा निर्देश जारी किए हैं मगर उनकी ज्यादातर भरपूर उलंघनां की जाती है। जिस तरीके से लोगों की समस्याओं को सुना तथा कागजों में दर्ज किया जाता है वह निंदनीय है तथा कानूनी तरीके से कोसों दूर होता है।_
_आम जनता अक्सर कहती है कि पुलिस का जुर्म पर कोई नियंत्रण नहीं रहा है बल्कि यह आरोप लगता रहा है कि ज्यादातर जुर्म पुलिस की शह पर हो रहे हैं। नशों के बढ़ते प्रचलन में पुलिस का बड़ा हाथ है, जो प्राय: समाचारपत्रों में छपते देखा है, हम सबने। सरकार पुलिस को अपने हितों के लिए प्रयोग करने अथवा वोटबैंक मजबूत बनाने में लगी है। यह भी आरोप लगते रहे कि पुलिस अधिकारी या कर्मचारी राजनीतिज्ञों की पूरी तरह पकड में आ चुके हैं और तो और पुलिस तथा राजनीतिज्ञ आपसी गठजोड़ से आमजन को दोनों हाथों से लूटने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे। कोई ऐसा दिन नहीं है जब पुलिस की ज्यादतियों या पुलिस से न्याय नहीं मिलने के समाचार टीवी या अखबारों की सुर्खियां न बने हों। पुलिस थाना में एफआईआर इस ढंग से लिखी जाती है कि वह कानूनन खरी न उतरे और न्याय की पहली सीढ़ी पर ही अपना दम तोड दे।_
ऐसा नहीं है कि समूचा पुलिस तंत्र ही भ्रष्ट हो चुका है। आज भी पुलिस निजाम में कई पुलिस अधिकारी या कर्मचारी अपनी ड्यूटी शिद्दत से निभाते हैं, मगर इनकी तादाद “आटे में नमक” की कहावत की तरह होती है। सारे विस्तार पर गौर करें तो लगता है कि पुलिस विभाग अपनीं ड्यूटी नहीं निभा पा रहा है। भले ही राजनीति की ताकत के तले दबकर या फिर रिश्वत का लोभ उनके लक्षयों के आडे आ रहा हो या फिर उनके आवश्यक प्रशिक्षण में कमी आई हो या फिर हमारा देश कुछ स्वार्थी सरकारों के चलते एक सोची समझी नीति के तहत तानाशाही की ओर अग्रसर है। बात भले ही कुछ भी न हो मगर आज जरुरत है हर सरकार के लिए कि वह आमजन को न्याय तथा सुरक्षा मुहैया करवाने के मध्यनजर मौजूदा पुलिसिया तंत्र में आवश्यक बदलाव के चलते पहले इनकी कमियों को दूर करे फिर इनमें कल्याणकारी कदमों के जरिए उचित सुधार लेकर आए ताकि जिस पुलिस तंत्र से आमजन खौफ़जदा है वह इसे अपना मित्र करार दे सके और आराम की नींद सो सके।_