एक अलबेला-मस्ताना शहर:बीकानेर - OmExpress

राजस्थान राज्य में बीकानेर जिले का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस राज्य (जिले) का प्रधान अंश प्राचीन काल में जांगल देश के नाम से प्रसिद्ध रहा। वीरवर बीकाजी से पूर्व इस राज्य मं कई हिस्सों पर सांखले-परमारों का, कुछ मोहिल-चौहानों का कुछ पर भाटी-यादवों का एवं कुछ पर जोहियों व जाटों का अधिकार था। विश्व की आदि सभ्यता भारतीय सभ्यता और संस्कृति की सृजनस्थली सरस्वती नदी की पावन गोद में बसा क्षेत्र वर्तमान का बीकानेर कहलाता है। जिसका वि.सं. 1545 ई. सन् 1488 में राव बीकाजी ने स्थापना की-

’’पनरै सै पैताल वें, सुद बैसाख सुमेर
थावर बीज थरपियो, बीके बीकानेर।’’जंागल नाम से विख्यात रहे इस नगर का तब क्षेत्रफल तेईस हजार तीन सौ सत्तरह वर्गमील था क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत की समस् रियासतों में छठी तथा राजपूताने में दूसरी सबसे बड़ी रियासत थी।

जांगल देश:- थार मरूस्थल की गोद में बसा यह शहर, गौरवशाली इतिहास की साख भरता हमारा ये शहर। महाभारत काल में कुरू राज्य का एक भाग था, इसके उत्तर में कुरू और मद्र थे इसका प्रमाण महाभारत के भीष्मपर्व एवं वन-पर्व के एक श्लोक में आता है-

’’तत्र में कुरु चांचलाः शालवा माद्रेय जांगला
तीर्थयाा मनुक्रमन्प्रातोस्मि कुरु जांगलानाम्।’’ऐतिहासिक जूनागढ़ का किला, लालगढ़ पैलेस, काबों (चूहों) का धाम विश्वविख्यात देशनोक की करणी माता मन्दिर, गुरू जम्भेश्वर की तपोभूमि मुकाम, सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल की तपोस्थली कोलायत, भाण्डाशाह जैन मंदिर श्री लक्ष्मीनाथ मन्दिर, शिवबाड़ी का ऐतिहासिक लालेश्वर, श्री डूंगरेश्वर महादेव मंदिर, नागणेची मंदिर, रमणीय स्थल देवीकुण्ड सागर, कोडमदेसर का भैरूनाथ मंदिर, कतरियासर गांव स्थित गुरू जसनाथ जी का मंदिर, नोखा का ’’जोगणिया का बाला’’ माता सुसवाणी मंदिर सहित अनेक धार्मिक स्थापत्य तथा ऐतिहासिकता की सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व रखते व राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाये रखे हैं।

बीकानेर ऋतुओं के अनुसार प्रकृति, संस्कृति, लोकपरंपरा, बातों ख्यातों एवं उत्सव-पर्व, त्योंहारों के लिए अपनी सुंदर एवं सुव्यवस्थित परंपराओं को समेटे हुए अन्य नगरों से भिन्न रहा है। नगर के निवासियों ने गहरे कुओं का पानी पीया है, अतः उनका व्यवहार उदारता से ओत-प्रोत रहा है। यहंा की भूमि के प्रति निवासियों का प्रेम जगमाहिर है – महाराजा रायसिंह जी दक्षिण भारत में ’’फोग’’ के पौधे देखते ही तत्काल अपनी मातृभूमि को याद कर बैठे, और कहा-

’’थूं है देसी रूंखडा म्हे परदेसी लोग।
म्हाने अकबर तेडि़या, थूं क्यूं आई फोग।’’

और ये दोहा भी जगप्रसिद्ध है। ’’सियालो खाटू भलो उनालो अजमेर, नागाणो नित रो भलो, सावण बीकानेर।’’ बीकानेर का सावन सदा सुरंगा रहा है। बरसात में जब ताल-तलैया भर जाते हैं, धरती पर हरियाली छा जाती है तब यहां देवी-देवताओं, पितरों, भोमियों और क्षेत्रपालों की पूजा-अर्चना होने लगती है। मंदिरों में मेलों के चलते भारी चहल-पहल होने लगती है। पूनरासर, तोलियासर, कोडमदेसर, कोलायत, सागर, शिवबाड़ी में भी मेलों के साथ ’’गोठे’’ शुरू हो जजाती है। लोग वनभोज करते हैं। प्रकृति की असीम कृपा इन धोरों में बसे शहर वासियों पर है, पानी में हिलारे मारते तालाबों के किनारे महिलाऐं-पुरूष-बच्चों के साथ वन विहार करना, प्रकृति की गोद में बैठ खाना-पीना करना मन को अपार आनंद से भर देता है।
बीकानेर शहर ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत ही समृद्ध रहा है। शहर की बनावट, यहां के चौक, गलियों व बड़ी-बड़ी हवेलियों-कोटडि़यों अपने आप में इतिहास को समेटे हुए हैं। शहर दो भागों में बंटा हुआ है- एक शहर पनाह जो चारदीवारी के अंदर है और दूसरा-शहर के बाहर की कॉलोनियां। शहर का दो भागों में बांटने वाली चार दीवारी लगभग तीस फुट ऊंची व छः फीट चौड़ी है। परंतु वर्तमान में परकोटे को संरक्षण की आवश्यकता है क्योंकि जगह-जगह से टूट रहा है एवं अपना अस्तित्व खोता जा रहा है।
परकोटे में प्रवेश हेतु पांच दरवाजे- कोटगेट, नत्थूसर गेट, शीतलागेट, जस्सूसर गेट व गोगागेट तथा आठ बारियों-कसाईयों की बारी, पाबू बारी, ईदगाह बारी, बेणीसर बारी, सोढाबारी या उस्ताबारी, मण्डलावतों की बारी या हमालों की बारी और बीदासर बारी। कोट दरवाजा नगर का मुख्य द्वार है। रियासत काल में ये सभी दरवाजे तथा बारियां रात को बंद होती थी।
यहां की लोक कला को रम्मतों ने जीवंत कर रखा है। रम्मत खेले जाने के लगभग तीन सौ वर्ष पुराने प्रमाण मिलते हैं। कहतें हैं कि विक्रम संवत बारह सौ बासठ, बुधवार के दिन मावल नामक नगर में दो ब्राह्मण जाति बदलकर रावल जाति में सम्मिलित हुए और रम्मत स्वांग धर खेलने/रमने लगे थे। बीकानेर में रम्मतों को दो भागों में बांटा गया है- कथानक सहित और कथानक विहीन रम्मतें। कथान सहित वर्ग में अमर सिंह राठौड़ तथा हड़ाऊ-मेरी की रम्मत आती है तथा दूसरे वर्ग में ख्याल, लावणी, चौमासा जैसी लोक गायन शैलियों को अभिनय के साथ प्रस्तुत किया जाता है। इसमें अभिनेताओं को यह छूट होती है कि वे चाहे जिसका स्वांग बनाकर/रचकर मंच पर प्रस्तुत कर सकते हैं। रम्मत का मंचन या तो चौक में रेत बिछा कर जमीन पर गोल घेरे में किया जाता है या फिर पाटों पर।
बीकानेर में गणगौर पूजन परंपरा:- बीकानेर में लकड़ी की गणगौर-ईसर निर्माण की परंपरा बहुत पुरानी है। जहां एक ओर गरीब परिवार मिट्टी से बनी गणगौर पूजते हैं वहीं दूसरी ओर मध्यम तथा उच्च वर्ग लकड़ी की गणगौर पूजते हैं। मथेरण जाति के लोग गवर को रंगने व सजाने का कार्य करते हैं। बीकानेर में प्रत्येक जाति तथा परिवार की अपनी गवर होती है। हैसियत के अनुसार कपड़े तथा गहने बनवाये जाते हैं। गहनों की दृष्टि से चांदमल ढड्ढे की गवर सबसे कीमती है जिसके गहनों की कीमत करोड़ों में आंकी जाती है। सबसे खास बात यह है कि यहां गणगौर के गीत पुरूष भी बढ़-चढ़ कर मंडली के साथ गाते हैं। अपनी संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं।
पाटा संस्कृति – बीकानेर की पाटा संस्कृति जग प्रसिद्ध है। चौक-चौक में पाटे लगे हुए हैं। बुजुर्ग कहा करते हैं कि इन पाटों पर ’बैराठी’ महाभोज के समय समाज के पंच बैठा करते थे। वे समाज व पाटों की शोभा थे। पाटे, पिरोले, स्वर्ण कलश रखने के साथ-साथ बंगड़ी आदि आभूषण पहनने का इन्हें अधिकार था जो बड़ा भोज (न्यात संबंधी) करते थे। पाटे ओसवाल-जैन समाज के भी प्रसिद्ध रहे हैं। दम्माणी चौक का छतरी वाला पाटा बहुचर्चित रहा है। ये पाटे खुले मंच के रूप में थे। पाटों पर ही सुख-दुख, पारिवारिक, सामाजिक समस्याओं का जिक्र होता तथा उसका हल भी निकाला जाता। बीकानेर में समय-समय पर सहभोज भी होेते रहते थे। मोटे-मोटे कड़ाहों का उपयोग होता था। पाटों पर जवान-बच्चे, बड़े-बूढ़ों से राय लेते उनसे शिक्षाप्रद बातें सुनते। नई पीढ़ी में अच्छे संस्कार आते जैसे- बड़ों का आदर, समव्यस्कों से प्रेम-प्यार और नन्हे बालकों के प्रति दुलार की भावना से ये संस्कार पीढ़ी स्वतः सम्प्रेषित हो जाते थे।
साहित्यिक दृष्टि से भी बीकानेर बड़ा गौरवशाली है। अकेले बीकानेर में ही लगभग साठ-सतर हजार प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियों की प्रतियां सुरक्षित है। राजकीय अनूप संस्कृत लाईब्रेरी विश्वविख्यात है। बड़ा उपासरा आदि के जैन ज्ञान भण्डारों में भी अत्यंत महत्वपूर्ण विविध साहित्य सामग्रीी संग्रहित है।
कला की दृष्टि से भी बीकानेर आगे ही है, यहां की चित्रकला- उस्ता कला, मथेरण कला शैली अपना विशिष्ट स्थान रखती है। शिल्पकला की दृष्टि से यहां का भांडाशाह मंदिर सर्वत्र प्रसिद्ध है।
बीकोर निवासी प्रकृति प्रेमी भी है। दैनिक कार्यों अथवा काम-काज या व्यापार से मुक्त होकर सुबह-शाम सामाजिक बगेचियों, तालाबों अथवा कुओं के समीप खुले मं पेड़-पौधों बगीचों आदि की रक्षा करते हुए नये-नये पौधारोपण भी करते हैं। वर्तमान में धरणीधर खेल मैदान व महानंद जी पार्क की शोभा देख मन प्रसन्न हो जाता है।
यहां सभी जाति, वर्ग एवं सम्प्रदाय के लोग सौहार्दपूर्ण भाव से रहतेे आए हैं। बीकानेर कला-संस्कृति साहित्य अनूठी गौरव-गरिमा एवं महिमा रखती है।
कहा भी गया है –
’’ऊँठ, मिठाई, स्त्री, सोनो-गहनो साह
पांच चीज पृथवी सिरै, वाह बीकाणा वाह।’’सचमुच यहां के निवासियों ने गहरे कुओं का पानी पिया है, वे धैर्यवान, दयावान परोपकारी, दानशील युद्धवी एवं गंभीरता के साथ मनोरंजक स्वभाव रखते हैं। तभी तो अपने स्थापना दिवस पर भरी गर्मी में भी छतों पर जाकर उत्साह व उमंग से ये त्योंहार मनाते हैं और ’’बोई काटिया है’’ उड़ा-उड़ा......’’ कह कर अपनी ऊर्जा को शहर की सतरंगी मस्ती में भर देते हैं। ये है अलबेला-मस्ताना शहर- ’’बीकाणा’’ चलते चलते यही कहना चाहूंगी-

’’आवो जी आवो म्हारे बीकाणे शहर मांय
हवा पाणी प्रेम रस खूब मिलसी……’’

डॉ. कृष्णा आचार्य
साहित्यकार, कवयित्री
उस्तों की बारी के अन्दर
झूंझार जी की चौकी वाली गली
बीकानेर (राज) 334005
मो.8619402147