एक बात सब जानते हैं कि दिल्ली के ८० प्रतिशत मतदाता अन्य प्रदेशों से विस्थापित हैं। २०१४ और २०१९ के लोकसभा चुनाव तथा २०१५ के दिल्ली विधानसभा के चुनावी नतीजों से साफ है कि लोकसभा के दोनों चुनावों में भाजपा अपने परंपरागत वोट के सहारे जीती थी जबकि विधानसभा चुनाव में यह परंपरागत वोट उसके हाथ से फिसल गया था ।
कहने को भाजपा दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर काबिज है लेकिन भरोसे से यह नहीं कहा जा सकता कि बीते विधानसभा चुनाव में मात्र ३ सीटों तक पहुंचने वाली भाजपा इस बार कितनी सीटें हासिल कर सकेगी और ६७ सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी के हाथ से कितनी सीटें निकल जाएंगी।
लोकसभा चुनाव में आए नतीजों से गद्गद भाजपा ने एक तरह से अपने सिर पर ‘वन एंड ओनली’ का ताज सजा लिया था। लेकिन झारखंड में करारी शिकस्त के बाद भाजपा ने सहयोगी दलों की सुध लेनी शुरू की है। दिल्ली के मौजूदा चुनाव में भाजपा ने जद-यू व लोजपा को अहमियत देने के संकेत दिए हैं। जबकि झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इनसे सीट बंटवारे पर साफ इनकार कर दिया था। वैसे भी इन दिनों भाजपा को कई प्रदेशों में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
झारखंड में भाजपा की हार की वजहों को भले ही चर्चा से अलग कर दें तो भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सीटों पर सहमति नहीं बनने पर आजसू ने भाजपा से नाता तोड़ा तो जद-यू और लोजपा को खुद भाजपा ने तवज्जो नहीं दी। इससे पहले हरियाणा में भी मनमाफिक नतीजे नहीं आने और महाराष्ट्र में सत्ता गंवाने के बाद सहयोगी दलों ने भाजपा पर हमला बोला था। गठबंधन को पहुंची चोट पर भाजपा सहानुभूति का मरहम अभी ठीक से लगा भी नहीं पाई है|
दिल्ली विधानसभा में ताजपोशी को बेचैन भाजपा के लिए गठबंधन धर्म निभाना कई मायनों में जरूरी है। दिल्ली में बड़ी संख्या बिहारी और पूर्वांचल के मतदाताओं की है। मौजूदा विधानसभा चुनाव में यदि यह मतदाता नहीं सधते हैं तो इसका परिणाम इसी साल बिहार में होने जा रहे चुनावों में भी देखने को मिल सकता है। एक महत्वपूर्ण बात जो देखने को मिली वह यह कि दिल्ली की जनता लोकसभा चुनाव में भाजपा को हाथों-हाथ लेती है लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा को वोट देने में यही मतदाता हाथ खींच लेते हैं।