दो चार दिन में २०२०-२१ का बजट आ रहा है |पिछले अनुभव यह है की गलत अनुमानों के कारण किसी मद में आवंटित धन पूरा खर्च नहीं हो सका तो किसी मद में वित्त वर्ष खत्म होने के पहले ही धन के लाले पढ़ गए | कहने को सकल कर राजस्व की तो आंकड़े भले ही अनुमान से कम रहे लेकिन तथ्य यह है कि जीडीपी की तुलना में ऐसे राजस्व का अनुपात मोदी सरकार के प्रत्येक वर्ष में बढ़ा ही है। वर्ष २०१३-१४ के १०.१४ प्रतिशत से बढ़कर इस वर्ष इसके ११.७२ प्रतिशत हो जाने की उम्मीद बात सरकार कर रही है विशेषग्य भी सहमति दिखा रहे हैं | ऐसे राजस्व लक्ष्य दो लाख करोड़ तय किया गया था | यदि यह कम भी रहता है तो भी जीडीपी के संदर्भ में यह आंकड़ा २०१३-१४ की तुलना में कहीं अधिक बेहतर रहेगा। जबकि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से होने वाला संग्रह अपेक्षा से कम रहना तय है। यह सब गलत आकलन का ही नतीजा है | आर्थिक मंदी के दिनों में बजटिंग ज्यादा देखने को मिल रही है। इससे यह साफ़ होता है सरकार या तो मंदी का अनुमान नहीं लगा पाती है या फिर वह उसे देख नहीं पाती।
जीएसटी के साथ तो दिक्कत है ही, लेकिन असल समस्या बजटके मामले में सरकार का जरूरत से ज्यादा महत्त्वाकांक्षी होना भी है। सर्व ज्ञात तथ्य है कि राजस्व में इजाफे का अच्छा खासा हिस्सा गैर कर स्रोतों से आया हैअर्थात सरकारी कंपनियों से अतिरिक्त लाभांश, सरकारी हिस्सेदारी कम करना , लाइसेंस शुल्क और स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल से राजस्व, वगैरह। इस वर्ष गैर कर राजस्व के दो वर्ष पहले की तुलना में ६३ प्रतिशत ज्यादा रहने की बात कही गई थी लेकिन यह लक्ष्य हासिल नहीं होगा।
सही मायने में सरकार या तो मंदी का अनुमान नहीं लगा पाती है या फिर वह उसे देख नहीं पाती। उदाहरण के लिए यह समझना मुश्किल है कि सरकार ने जीडीपी की वृद्घि के लिए ७ प्रतिशत और नॉमिनल वृद्घि के लिए१२ प्रतिशत का अनुमान क्यों लगाया था जबकि जुलाई से ही हालात एकदम स्पष्ट हो चले थे। यह कोई बचाव नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन भी मंदी के प्रभाव का आकलन करने में चूक गए। हर कोई जानता है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्वानुमान में आंकड़े प्राय: गलत रहते हैं। नतीजा, अंतिम तिमाही में सरकारी क्षेत्र १५ प्रतिशत की दर से बढ़ा जबकि शेष अर्थव्यवस्था बमुश्किल ३ प्रतिशत की गति से विकसित हुई।