-राकेश दुबे
जी हाँ, मेरा यह सवाल बहुत से लोगों से हैं ? सबसे पहले, भारत सरकार से जिसे हफ्ते भर से जलते हुए देश को अब स्पष्टीकरण देने का होश आ रहा है | दूसरा- उनसे जिन्हें सरकार चलाने का वर्तमान सरकार से ज्यादा अनुभव है | तीसरा उनसे जो बिना पढ़े-लिखे इस आन्दोलन में कूद गये और ये भूल गये कि इस भीड़ में वे हाथ भी हो सकते हैं, जिनका मकसद मुल्क में आग लगाना है | सबसे पहले सरकार का स्पष्टीकरण- एक शीर्ष सरकारी अधिकारी ने कल बमुश्किल स्पष्ट किया कि भारत में जिनका जन्म १९८७ के पहले हुआ या जिनके मात-पिता की पैदाइश १९८७ के पहले की है, वो कानून के मुताबिक भारतीय नागरिक हैं उन्हें नागरिकता कानून २०१९ के कारण या देशव्यापी एनआरसी होने की स्थिति में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। नागरिकता कानून के २००४ के संशोधनों के मुताबिक असम में रहने वालों को छोड़कर देश के अन्य हिस्से में रहने वाले ऐसे लोग जिनके माता या पिता भारतीय नागरिक हैं, लेकिन अवैध प्रवासी नहीं हैं, उन्हें भी भारतीय नागरिक ही माना जाएगा।
अब बात उनकी जिन्हें सरकार चलाने का भारी भरकम अनुभव हैं, लोकसभा और राज्यसभा में उनके समझदार नुमाईंदे भी है | डेढ़ पन्ने के कानून की सही व्याख्या कर देते तो यह गुनाह नहीं होता और ये हिंसा नहीं होती | राजनीति करने का अवसर होता है | यह जो हुआ घर फूंक तमाशा ही साबित हुआ | जो सम्पत्ति जली वो देश के प्रधानमन्त्री या गृह मंत्री की नहीं थी, हम सब की थी | यह कहना कि विरोध के लिए कुछ भी कीजिये ने , झारखंड में कुछ प्रतिशत वोट जरुर दिलवा दिए होंगे | लेकिन, इसने आपको आपके आराध्य गाँधी के मूल तत्व “सत्य” से काफी दूर धकेल दिया है |
सही मानिए ,नफरत के आधार पर पनपा आंदोलन तभी तक चल सकता है जब तक भय और संघर्ष का माहौल बना हो। आइये, इसे सब मिलकर दूर करें |याद रखिये, मनुष्य के सभ्य होने की यात्रा कई चरणों से होकर गुजरती है। इस यात्रा का हर पड़ाव उसे हिंसा से दूर ले जाता है। कम से कम कोई समाज हिंसा की सैद्धांतिकी को सम्मानित कर अपने सभ्य होने का दावा नहीं कर सकता, वे समाज भी नहीं, जिन्होंने मानव-जाति के इतिहास में विनाश के अभूतपूर्व और भयंकरतम हथियारों का जखीरा अपने पास इकट्ठा कर रखा है। पिछले एक पखवाड़े में देश में जो कुछ घटा है , मन में शंका उत्पन्न कर करता है कि क्या हम एक सभ्य समाज बन सके हैं या उस दिशा में बढ़ भी रहे हैं?