-राकेश दुबे
कितनी विचित्र बात है देश में अन्न पैदा करने वाला भी दुखी है और उपभोग करने वाले तबके का एक बड़ा हिस्सा अन्न का अभाव झेल रहा है,बाज़ार मौके का लाभ उठा रहा है | पैदा करने वाला आज इस दौर में अपना माल खेत से बाज़ार तक नहीं पहुंचा पा रहा है | दीन-हीन असंगठित कामगार अन्न के लिए परेशान है | असंगठित कामगारों में ९४ प्रतिशत रोज कमाते और खाते हैं। उनके पास इतनी बचत नहीं होती कि वे दो-तीन महीनों का राशन इकट्ठा कर सकें। जाहिर है, जो जहां है, उसकी बुनियादी जरूरतें वहीं पूरी की जानी चाहिए थी। ऐसा सम्भव नहीं हुआ, जरूरतें पूरी न होने पर महानगरों से कामगारों का हुजूम गांवों की ओर निकल पड़ा। अभी ठिकाने तक नहीं पहुंचा है |
कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे पास अनाज के पर्याप्त भंडार हैं और बुनियादी तौर पर अनिवार्य वस्तुओं का उत्पादन भी हो रहा है। इसलिए अगर प्रशासन चाहे, तो आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति जरूरतमंदों तक हो सकती है, परन्तु इसके लिए एक व्यापक जन-वितरण प्रणाली की जरूरत है। सरकारी अमला और समाज के कुछ सन्गठन जो इस काम में लगे है , कम पड़ते हैं |
आज देश में सभी तरह के उत्पादन रुके हुए हैं। कृषि, बिजली, गैस आदि के क्षेत्र में थोड़ा-बहुत उत्पादन जरूर हो रहा है, मगर यह इतना नहीं कि देश की आर्थिक जरूरतें पूरी हो सकें। देखा जाए, तो हमारे अर्थ तंत्र का छोटा सा हिस्सा काम कर रहा है बड़ा हिस्सा लॉक डाउन में है । अनुमान है की इस कोरोना दुष्काल के बाद हमने अर्थतंत्र को तेजी से घुमाया, तो भी परिणाम लगभग वैसे ही होने जो वर्ष के आरम्भ में थे | आंकड़ों में समझे तो पिछले वर्ष हमारा उत्पादन २०० लाख करोड़ रुपये का था, जो इस साल घटकर १२० लाख करोड़ रुपये तक ही हो सकता है। परिणाम, हमारा कर संग्रह तेजी से गिरेगा, अभी सिर्फ अनिवार्य वस्तुओं का उत्पादन ही होगा और कर-राजस्व गैर-अनिवार्य वस्तुओं से ही जुटता है। जीएसटी-संग्रह भी ८० से ९० प्रतिशत तक कम हो सकता है । कॉरपोरेट टैक्स-संग्रह,और आयकर में भी गिरावट आएगी|