बीकानेर। डीएलबी द्वारा बीकानेर नगर निगम की कमेटियों की सूची ने बहुत कुछ साफ कर दिया है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि
बीकानेर नगर निगम में राजनीति का असली पत्ता चल दिया गया है। सरकार होने के बावजूद अपना बोर्ड नहीं बना पाई कांग्रेस की पहली शह है और इस पर मात देने के लिए सबसे पहले तो भाजपा को एकजुट होना होगा, जो दिखाई नहीं दे रहा। यह वही भाजपा है,जिस पर अपने ही सभापति अखिलेश प्रतापसिंह को अपदस्थ करवाने की साज़िश रचकर उसे हटा देने का आरोप है। इतने साल में क्या तो बदला होगा। और यह वही कांग्रेस है, जिसने उस वक्त भी भाजपा की सारी रणनीति पर पानी फेरते हुए मकसूद अहमद को सभापति बनाने में सफलता प्राप्त की थी।

कुछ भी नहीं बदला है। अगर कोई इन सब के बीच देवीसिंह भाटी के प्रभाव को कम आंकता है तो यह राजनीतिक समझ की कमी ही मानी जायेगी। ऐसे में बीकानेर नगर निगम को भाजपा अपने अधिकार में रखना चाहती है तो उसे भी रणनीतिक चातुर्य से काम करना होगा। अब तक ऐसा नहीं कर पाने की वजह से नुकसान भोगना ही पड़ा है।

अपना बोर्ड नहीं बनने से व्यथित कोंग्रेस ने जहां कमेटियों में अपने लोगो को सैट करवाने में नौकरशाही का रणनीतिगत इस्तेमाल कर लिया है तो अपने ही अंदर खेमेबंदी की शिकार भाजपा में महापौर सुशीला कंवर भी अलग-थलग पड़ चुकी है। केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल के गुट से होने का आरोप महापौर पर है, इस वजह से उन्हें लाभ भी मिला है तो नुकसान भी उठाना पड़ा है।

नगर निगम पार्षदों के भी एक गुट चुनाव बाद से ही विरोध में है। किसी तरह कांग्रेस के पार्षदों को साथ लेकर अधिकारियों को घेरने की रणनीति बनाई गई, लेकिन वह भी कमेटियों के गठन के बाद धराशायी हो गई है।
इसके बाद राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि अधिकारियों व कर्मचारियों को तो सिर्फ मोहरा बनाया गया था। असली खेल तो कांग्रेस का था।

इस बीच महापौर ने भी कुछ गलतियां कर ली, जो उन्हें भारी पड़ रही है। निगम की कमेटयों के गठन वाली साधारण सभा को मिनटों में सम्पन्न करवा देना, उनकी बड़ी गलती मानी जा रही है, जिस पर कांग्रेस ने पूरी तरह से सोच-समझकर अधिकारियों को आगे किया। जानकारों का कहना है कि महापौर का कामकाज देखने वालों को तब ही समझ लेना चाहिए था जब कांग्रेस के पार्षद अचानक अलग होने लगे और अपना विरोध जताने लगे। डीएलबी को यह सपना तो नहीं आता कि किस-किस पार्षद को तरजीह देनी है, किसे दरकिनार करना है। तय है कि अधिकारियों को यहीं से फीडबैक गया है।

ऐसे में अब नगर निगम महापौर के पास न्याय का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई चारा नहीं है। इसके लिए उनके पास रामकृष्णदास गुप्ता जैसे बड़े वकील भी हैं। मतलब यह साफ है कि नगर निगम में जहां कांग्रेस अपनी सत्ता का उपयोग नियमों की व्याख्या में करेगी तो महापौर निगम के कानून में अपने लिए निर्धारित शक्तियों के आधार पर लोकतंत्र को बचाने की मांग करेगी।

बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि यह इतनी सामान्य घटना नहीं है। राजनीति में एक बार फिर से अपनी पुत्रवधु को लेकर उतरे गुमानसिंह राजपुरोहित को वापस प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक सचेत होकर काम करना होगा। उन्हें यह मानकर चलना होगा कि भाजपा में भी उनके ज्यादा लोग नहीं हैं। जो हैं, वे अर्जुन मेघवाल की वजह से हैं। इस बीच कांग्रेस पर भरोसा करने का हश्र सामने है ही। यह समझ लेना होगा कि राजनीति में सिर्फ और सिर्फ अपना सोचा जाता है। कोई अगर किसी के लिए कुछ करता है तो उसमें भी पहले से ही सौदे और समझौते तय होते हैं।