बीकानेर। ‘नाटक प्रतिरोध का माध्यम है। वह समाज को चेताने का काम करता है, समाज में व्याप्त विसंगतियों-विदू्रपताओं-विरोधाभासों को वह उद्घाटित करता है, इसलिए अपना प्रतिरोध करने वाले इस माध्यम को समाज साथ नहीं देता, किंतु आज प्रतिरोध की ज्यादा जरूरत है, इसलिए नाटक की महत्ता पहले से भी ज्यादा बढ़ गई है।
ये विचार प्रतिष्ठित नाटककार, साहित्य अकादेमी में राजस्थानी भाषा परामर्श समिति के संयोजक एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. अर्जुन देव चारण ने साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली एवं मुक्ति संस्थान की ओर से आयोजित दो दिवसीय ‘राजस्थानी नाटकः परम्परा अर चुणौतियां’ विषयक समारोह की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए।
रेलवे स्टेशन के पास स्थित होटल राजमहल पैलेस के सभाकक्ष में आयोजित उद्घाटन सत्र में डॉ. चारण ने कहा कि राजस्थानी रंगमंच छह सौ वर्षों से भी अधिक प्राचीन है, जिसके पुख्ता प्रमाण ‘मुंहता नैणसी री ख्यात’ सहित अनेक प्राचीन गं्रथों में मिलते हैं। उन्होंने कहा कि कोई भी परम्परा सौ-सवा सौ साल पुरानी नहीं होती, वरन् वह आदिकाल से चली आ रही होती है। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य आलोचना में चली आ रही मान्यताओं को खारिज करते हुए कहा कि भारतीय रंगमंच की परम्परा संस्कृत रंगमंच की समूह परम्परा से निकली है। भरतमुनि का नाट्य शास्त्र इसका साक्ष्य है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि समाज का यह दायित्व है कि वह लोकनाट्य को जीवित रखने हेतु प्रयास करे। उन्होंने रंगकर्म में अभिनेता की पहली भूमिका बताते अपेक्षा की कि उन्हें ‘भारतीय चित्त’ को समझने की जरूरत है। ‘मन’ बहुत महत्त्वपूर्ण है, नाटक में एवं अभिनेता ही मृत्यु और नियति का अतिक्रमण करके अभिनीत चरित्र में प्रवेश करने की सामर्थ्य रखता है, जबकि ऐसा हम अपने जीवन व्यवहार में नहीं कर सकते।
वरिष्ठ नाटककार लक्ष्मीनारायण रंगा ने मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए कहा कि रंगमंचीय नाटक त्रिनेत्रीय होता है, जो भूत, वर्तमान एवं भविष्य को अपने में समाविष्ट किए होता है। उन्होंने रंगकर्मियों से अपेक्षा की कि वे अर्जन से ज्यादा से सृजन को महत्त्व देवें तथा समर्पित भाव से संलग्न रहें, तब ही रजस्थानी रंगमंच समर्थ हो सकेगा।
आरम्भ में साहित्य अकादेमी के अधिकारी शांतनु गंगोपाध्याय ने आगंतुकों का स्वागत किया तथा कहा कि अकादेमी सभी भारतीय भाषाओं के विकास के लिए विभिन्न तरह के आयोजन करती रही है। राजस्थानी नाट्य परम्परा पर यह दो दिवसीय समारोह निश्चित ही राजस्थानी रंगमंच के लिए उपलब्धिमूलक रहेगा।
मुक्ति के सचिव कवि-कथाकार राजेन्द्र जोशी ने संयोजकीय सम्बोधन में कहा कि मातृभाषा राजस्थानी का प्राचीन साहित्य बहुत समृद्ध रहा है तथा मौजूदा दौर में भी निरंतर सृजन हो रहा है, किंतु नाटक विधा मे अन्य विधाओं की तुलना में कम सृजन हुआ है।
उद्घाटन सत्र में आभार प्रदर्शित करते हुए वरिष्ठ व्यंग्यकार-कथाकार बुलाकी शर्मा ने इस दो दिवसीय समारोह में होने वाली चर्चाओं से राजस्थानी नाट्य लेखन को विशिष्ट दृष्टि मिलने की आशा व्यक्त की।
उदयपुर से आए वरिष्ठ कवि-समालोचक डॉ. ज्योति पुंज की अध्यक्षता में प्रथम सत्र ‘राजस्थानी नाटक परम्परा’ विषयक हुआ, जिसमें जोधपुर के डॉ. सुखदेव राज, बीकानेर के अविनाश व्यास तथा हनुमानगढ़ के दीनदयाल शर्मा ने राजस्थानी नाटक की परम्परा को दर्शाते हुए उसके इतिहास के बारे में चर्चा की एवं मौजूदा स्थिति से अवगत करवाया। डॉ. ज्योति पुंज ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में अपने रंगमंचीय अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि समर्पित भाव से नाट्यकर्म में आकर ही हम इसको पल्लवित-पुष्पित कर सकते हैं। इस सत्र का संयोजन कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया ने किया।
‘राजस्थानी नाटक अर लोकनाट्य परम्परा’ विषय द्वितीय सत्र की अध्यक्षता करते हुए लोककला मर्मज्ञ डॉ. श्रीलाल मोहता ने कहा कि शास्त्रों से भी पहले लोक है। लोक में जो आस्था और मान्यताएं हैं, वे शास्त्रों से भी पूर्व से चली आ रही हैं तथा लोक उन्हीं से संचालित होता है, इसलिए हमें लोकमन को परखते हुए राजस्थानी नाटकों का सृजन करना चाहिए। इस सत्र में रंगकर्मी विपिन पुरोहित, इकबाल हुसैन और कथाकार राजेन्द्र जोशी ने राजस्थानी नाटक के विभिन्न आयामों को अपने पत्रवाचन में खोला। इस सत्र का संचालन युवा कवि-रंगकर्मी हरीश बी. शर्मा ने किया।