पाकिस्तान की राजनीति अब फिर से गरमा रही है। जैसी उथल-पुथल हमने जनरल अयूब खान, याह्या खान और परवेज मुशर्रफ के खिलाफ कभी पाकिस्तान में देखी थी, लगभग वैसी ही उथल-पुथल की संभावनाएं अब बन रही हैं। पाकिस्तान की नौ प्रमुख पार्टियां एकजुट हो गई हैं। वे एकजुट होकर किसी फौजी तानाशाह को हटाने पर कमर नहीं कस रही हैं बल्कि उन्होंने पाकिस्तान की फौज के खिलाफ ही अपना नारा बुलंद कर दिया है। ये वे पार्टियां हैं, जिनके नेता पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी रह चुके हैं।
इमरान-सरकार के खिलाफ ‘पाकिस्तान पीपल्स पार्टी’ के नेता बिलावल भुट्टो ने जिहाद छेड़ दिया है। बिलावल की पहल पर पाकिस्तान के लगभग सभी प्रमुख विरोधी दल एकजुट होकर इमरान की नाक में दम करनेवाले हैं। इन पार्टियों के संयुक्त सम्मेलन में लंदन से भाषण देते हुए पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने फौज पर जैसा हमला बोला, वैसा आज तक पाकिस्तान में किसी बड़े नेता ने नहीं बोला। अभी तक पाकिस्तान के नेता अपने मुंह से कभी फौज का नाम लेकर उसकी आलोचना नहीं करते थे, जैसे किसी जमाने में औरतें अपने पतियों का नाम लेने में संकोच करती थीं। पाकिस्तान में फौज को नेता और पत्रकार अक्सर ‘प्रतिष्ठान’ या ‘स्टेब्लिशमेंट’ कहकर संबोधित करते हैं या यह भी कहते हैं कि वह ‘सरकार’ के अंदर सरकार’ है। लेकिन नवाज शरीफ ने अपने संबोधन में नया मुहावरा गढ़ दिया। उसे ‘सरकार के ऊपर सरकार’ कहा।
पाकिस्तान में फौज के विरुद्ध जुबान खोलना देशद्रोह क्यों माना जाता है ? इसके पीछे धारणा यह है कि यदि फौज है तो पाकिस्तान है। यदि फौज हाशिए में रहे, जैसे कि वह अन्य देशों में रहती है, तो पाकिस्तान बिखर जाएगा। पाकिस्तान दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है, जो मजहब के आधार पर बना है। यह फर्जी आधार सिर्फ डंडे के जोर पर ही जिंदा रह सकता है। मजहबी आधार फर्जी होता है, इसीलिए बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ। आज भी पाकिस्तान में सिंधी, बलूच, पख्तून और कश्मीरी अपने अलग राष्ट्र की मांग क्यों कर रहे हैं ? पाकिस्तान में यो तो अयूब, याह्या, जिया और मुशर्रफ जैसे फौजियों का राज लंबे समय तक रहा लेकिन जब गैर-फौजी नेता प्रधानमंत्री रहे, तब भी देश की असली ताकत फौज के हाथों में ही रही। फौज के इशारों पर ही अदालतों ने जुल्फिकार अली भुट्टो, नवाज शरीफ और गिलानी जैसे प्रधानमंत्रियों को मुजरिम बनाया।
अब फौज के खिलाफ युद्ध की जो घोषणा हुई है, क्या वह सफल हो पाएगी ? अभी जो तहरीके-जम्हूरियत बनी है, उसका नेता मौलाना फजलुर रहमान को बनाया गया है। वे जमीयते-उलेमा-इस्लाम के मुखिया हैं और पिछले साल उनकी पार्टी के प्रदर्शनों ने सरकार की नाक में दम कर दिया था। पाकिस्तान की राजनीति में मजहब की जबर्दस्त भूमिका को देखते हुए यह माना जाएगा कि एक मौलाना के नेतृत्व में कोई भी आंदोलन काफी लोकप्रिय हो सकता है। मौलाना अपने इस बहुदलीय आंदोलन को क्वेटा से छेड़ेंगे। सरकारी मंत्रियों का कहना है कि यह मौलाना अफगान आतंकवादियों का संरक्षक है। यह सेना का विरोध करके भारत की मदद कर रहा है।
इमरान सरकार और फौज के खिलाफ यह जन-आंदोलन उस दौर में तेज हो रहा है, जबकि पाकिस्तान अपने जन्म के बाद सबसे गहरे संकट में फंसा हुआ है। कोरोना की महामारी ने पाकिस्तान को त्रस्त कर ही रखा है, उसके अलावा उसकी आर्थिक स्थिति इतनी बिगड़ती जा रही है कि अब जनता अपने आप सड़क पर उतरने लगेगी। मंहगाई और बेरोजगारी ने आम आदमी का दम फुला दिया है। सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात ने भी उसे ठेंगा दिखा दिया है। अमेरिका ने अपना हाथ खींच रखा है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय टास्क फोर्स का शिकंजा उस पर कसता चला जा रहा है। अकेला चीन इस लड़खड़ाती अर्थ-व्यवस्था को कब तक टेका लगाएगा?
यदि इमरान-सरकार संयम से काम नहीं लेगी और फौज के इशारों पर नाचेगी तो यह अंसभव नहीं कि उसके गठबंधन में शामिल पार्टियां उससे किनारा करने लगें। उसका नतीजा यह भी हो सकता है कि इमरान-सरकार के संसद में गिरते ही पीछे छिपी फौज एकदम आगे आ जाए और पाकिस्तान एक बार फिर फौज के तले सीधा रौंदा जाए।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)