‘सांवर दइया की चयनित राजस्थानी कविताएं’ पुस्तक का श्रेय कवयित्री व अनुवादिका श्रीमती रजनी छाबड़ा को है। यदि वे मेरे कवि पिता श्री सांवर दइया की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद-संचयन की योजना नहीं बनाती तो संभवत: यह पुस्तक कु छ वर्षों बाद प्रकाश में आती। मैंने अपने पिता श्री सांवर दइया (1948-1992) के जीवनकाल में उनकी किसी कविता का राजस्थानी से हिंदी अनुवाद नहीं किया। अनुवाद के बारे में यहां यह भी आपसे साझा करना चाहता हूं कि वे स्वयं उच्च कोटि के अनुवादक थे। डेकेन कॉलेज पूना से उन्होंने गुजराती भाषा का विधिवत अध्ययन किया और काफी वर्षों भाषा शिक्षक के रूप में गुजराती का अध्यापन भी किया। राजस्थानी के साथ-साथ हिंदी, अंग्रेजी और गुजराती भाषाओं पर उनका अधिकार था। ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ और ‘भाषा’ आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके अनुवाद प्रकाशित हुए। उन्होंने जीवन के अंतिम वर्षों में साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत गुजराती निबंध संग्रह ‘स्टेच्यू’ (अनिल जोशी) का राजस्थानी अनुवाद भी किया, जो साहित्य अकादेमी से वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ है। सच तो यह है कि उनके साथ रहते हुए मैं उन्हें एक लेखक-कवि के रूप में पृथक से बहुत बाद में पहचान सका।
अपने बचपन के दिनों का मैं स्मरण करता हूं तो स्मरण आता है कि जब मेरे पिता नोखा के बाबा छोटूनाथ उच्च माध्यमिक विद्यालय नोखा में व्याख्याता (हिंदी) के पद पर सेवारत थे, तब नोखा के एक कवि सम्मेलन में मैंने उनको कवि के रूप में पहली बार सुना था। सम्मेलन में उन्होंने कौन-कौन सी कविताएं सुनाई, मैं ठीक से स्मरण नहीं कर पा रहा हूं… किंतु एक कविता मुझे अब भी अपनी महक से महकाती है- वह प्रेम कविता थी और उसमें गुलाब का कोई संदर्भ था।
दूसरा दृश्य हमारे विद्यालय का है, जब प्रार्थना सभा में हमारे समाने मेरे पिता श्री सांवर दइया को राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के गद्य पुरस्कार की घोषणा हुई थी। यह वे दिन थे जब मैं राजस्थानी भाषा और साहित्य से परिचित होने लगा था। उन्हीं दिनों महाकवि श्री कन्हैयालाल सेठिया के राजस्थानी भाषा मान्यता के प्रयासों के विषय में मैंने जाना और राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार रावत सारस्वत और श्रीलाल नथमल जोशी द्वारा आयोजित राजस्थानी भाषा की परीक्षाओं में परीक्षार्थी भी रहा। यह मेरे लिखने की जमीन का निर्माण था, जो विद्यालय में हमारे खेल शिक्षक डेलू जी हमें राजस्थानी पुस्तकें पढ़ कर सुनाया करते थे। मेरे घर पर उपलब्ध पिता की अनेक पुस्तकों के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता गया और नोखा से हमारे बीकानेर आने से पहले मैं काफी कु छ साहित्य की दुनिया से परिचित होने लगा था। इन सब बातों का यहां स्मरण इसलिए भी जरूरी है कि मैंने कवि सांवर दइया को एक पुत्र, एक पाठक और रचनाकार के रूप में जाना-पहचाना। अब जब वे इस संसार में नहीं है, फिर भी कभी-कभी यह लगता है कि वे मेरे आस-पास हैं। कभी कभी तो जैसे मेरे भीतर वे सांस लेते हैं… उनकी स्मृति और अहसास ही मेरी पूंजी है।
जब मेरे पिता को उनके कहानी संग्रह पर 1985 का साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार (राजस्थानी) मिला तब मैंने इस बात को लक्षित किया कि उन्हें कहानीकार के रूप में तो बहुत मान-सम्मान मिला है, किंतु कवि के रूप में कम जाना जा रहा है। बाद के वर्षों में मैंने महसूस किया कि वे अपने लेखन और हर विधा के प्रति गंभीरता से कार्य करते हैं। उनकी लेखन के प्रति निष्ठा और समर्पण-भाव मुझे प्रभावित करने लगा। उन्होंने व्यंग्य लिखें… वे बहुत चर्चित रहे, किंतु उनके जीवनकाल में कोई व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका। बाद में उनके दो व्यंग्य संग्रहों जितनी रचनाओं को ‘इक्यावन व्यंग्य’ के रूप में पुस्तकाकार किया गया है। अनुवादक के रूप में उन्होंने बहुत काम किया जिसको अब तक पुस्तकाकार नहीं किया जा सका है। अनूदित निबंध संग्रह ‘स्टेच्यू’ (अनिल जोशी) को बहुत बाद में साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित किया गया है। ‘स्टेच्यू’ के लिए मुझे संघर्ष करना पड़ा, उसकी एक अलग कहानी है जो यहां विषयांतर होगा। उन्होंने राजस्थानी कहानियों का राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के लिए संपादन ‘उकरास’ नाम से किया, जिसे वर्षों तक राजस्थानी के स्नातक पाठ्यक्रम में रखा गया। राजस्थान शिक्षा विभाग की पत्रिकाएं ‘शिविरा’ और ‘नया शिक्षक’ में उनके कार्यों का अब भी स्मरण किया जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि उनके कार्यों का मूल्यांकन होगा, तब कु छ नई स्थापनाएं सामने आएंगी। राजस्थानी में रचनाकारों के मूल्यांकन का कार्य बहुत कम हुआ है।

मुझे यहां बेशक उनकी कविताओं पर अपनी बात कहनी है, किंतु उनके साथ गुजारे समय के कुछ प्रसंगों के माध्यम से मैं समझता हूं कि उनके कवि के वास्तविक रूप और कवि-मन तक हम पहुंच सकते हैं। यहां मैं कुछ प्रसंग साझा करना चाहता हूं- जब मेरे पिता नेराजस्थानी में गजलनुमा कविताओं को ‘पंचलड़ी’ दिया तो वे शायद कविता को छंद के बंधनों और अनुशासन से मुक्त रखते हुए किसी अहसास और अनुभव के रूप में ग्रहण करने की मांग कर रहे थे।
यहां यह भी रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि उनकी इस धारा को अन्य कवियों ने भी प्रयोग के रूप में स्वीकार किया। राजस्थानी और हिंदी के कवि ओम पुरोहित ‘कागद’ ने तो अपने कविता संग्रह का नाम उन्हें सम्मान देते हुए ‘पंचलड़ी’ रखा था। इसी प्रकार सांवर दइया द्वारा राजस्थानी में नव-प्रयोग ‘हाइकू’ को उनके बाद के अनेक कवियों ने स्वीकार किया और अनेक संग्रह प्रकाश में आए।
आधुनिक राजस्थानी कविता के इतिहास में सांवर दइया को प्रयोगशीलता के रूप में विशेष रूप से पहचाना गया है। उनके पुत्र के रूप में वर्षों तक मैं उनका पहला पाठक भी रहा हूं। यहां एक सच्चाई यह भी उद्घाटित करना चाहता हूं कि उनके श्रोता के रूप में कभी-कभी मैं बहुत परेशान हो जाता था। हम कहीं जा रहे हैं और मेरे पिता अपनी नई पंचलड़ी कविता को गुनगुना रहे हैं। ‘तपते धोरां तड़ाछ खा पड़्यो हिरण देखो…’ या फिर ‘बाबा ऐ धोरा…’ उनका अपनी कविता को मेरे कान के पास गा कर सुनाना मुझे उस समय अच्छा नहीं लगता था। मैं सोचा करता था- जिसे पढ़ लिया या एक बार सुन लिया, उसे बार-बार क्यों सुनना? मैं इस बात से बिल्कुल बेखबर था कि मेरे पिता जल्दी ही मुझे छोड़ कर दूसरी दुनिया में जाने वाले हैं, शायद वे भी बेखबर थे।
कहते हैं कि कवि भविष्यदृष्टा भी होता है। मेरे कवि पिता ने राजस्थानी के प्रतिष्ठ कवि-कहानीकार मोहन आलोक के काव्य-संग्रह ‘सौ सॉनेट’ की भूमिका लिखते हुए ऐसा कुछ लिखा, जिससे लगता है कि जैसे उन्होंने पहले से ही अपनी मृत्यु को आते हुए देख लिया हो। वे बड़े व्यंग्यकार थे और मैं सोचता हूं कभी-कभी मजाक में लिखी कोई बात सच हो जाती है। भूमिका में यमदूत की बात और भूमिका लिखने के पीछे सांस अटका हुआ है, लिखना सच में क्या जीवन का व्यंग्य था जिसको काल के क्रूर हाथों ने सत्य सिद्ध कर दिया। यह एक संयोग रहा।
एक गंभीर बात- उन्होंने अपने उस अंतिम भूमिका आलेख को ‘एक बोजोड़ भूमिका’ नाम दिया और पाठकों को कहा कि किसी भी कृ ति का सच उसकी भूमिका में नहीं होता है, सच तो पाठक स्वयं तलाश करता है। जाहिर है इस कृ ति के लिए उनकी कही बात यहां स्मरण कर सुधि पाठकों से मैं यही निवेदन करना चाहता हूं।
मैं आपनी आलोचना में संबंधों को महत्त्व नहीं देता वरन कृ ति और कृ तिकार के अवदान के साथ रचना को विधा की परंपरा और विकास के ग्राफ से देखता हूं। यदि मैं सच भी कहूंगा तो उसे संदेह के घेरे में रखा जाएगा- सांवर दइया बड़े कवि के रूप में इसलिए जाने जाएंगे कि उन्होंने अपनी सतत काव्य-यात्रा ने राजस्थानी कविता को एक मुकाम दिया। ‘हुवै रंग हजार’ में उनकी कविताएं एक समर्थ कवि की कविताएं है जो उनके इस संसार से चले जाने के बाद प्रकाशित और पुरस्कृत हुई। ‘उस दुनिया की सैर के बाद’ हिंदी कविता संग्रह का प्रसंग भी यहां रेखांकित किया जाना चाहिए, जो उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सकी। वे जीवन के अंतिम वर्षों में राजस्थानी कविताओं के साथ हिंदी कविताओं को भी लिखते हुए संभवत: किसी संग्रह के रूप में लाने की योजना रखते होंगे। ‘हुवै रंग हजार’ संग्रह का नाम और पूरी रूपरेखा उन्होंने अपने जीवन काल में कर ली थी, किंतु ‘उस दुनिया की सैर के बाद’ का नामकरण और कविताओं का क्रम उनके नहीं रहने के बाद मेरे द्वारा किया गया था।

उनके बीच राह में मुझे छोड़ इस संसार से चले जाने की पीड़ा को मैंने अपनी कु छ कविताओं में प्रस्तुत किया है, जिन्हें मेरे पहले राजस्थानी कविता संग्रह ‘साख’ और बाद में राजस्थानी कविताओं के हिंदी में अनूदित संग्रह ‘रक्त में घुली हुई भाषा’ (अनुवाद- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) में देख सकते हैं। इसी भांति मैंने अपनी लंबी कविता ‘देसूंटो’ में पिता और परमपिता के श्लेष को साधते हुए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक प्रसंगों और प्रश्नों को प्रस्तुत किया था। एक कवि और इस किताब के संपादक-अनुवादक के रूप में कविता और खासकर राजस्थानी कविता के विषय में विचार करते हुए मैं यहां विनम्र निवेदन करना चाहूंगा कि प्रत्येक भाषा का अपना एक मुहावरा और देसजपन होता है, जिसे हू-ब-हू किसी अन्य भाषा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। अनेक कविताओं और रचनाओं के सामने अनुवाद अपने दोनों हाथ खड़े कर देता है कि बाबा हम से नहीं हो सकता है। कवि सांवर दइया की राजस्थानी में ऐसी अनेक कविताएं है जिसको हिंदी में ले आना बेहद श्रमसाध्य रहा और कुछ को अनुवाद करते हुए बीच रास्ते में छोडऩा पड़ा। पंचलड़ी कविताओं के लिए तो मैंने पहले से ही सोच लिया था कि उनका अनुवाद नहीं कर सकूं गा।
इन कविताओं में जहां राजस्थानी लोक रंगों की और पर्यावरण की प्रस्तुति महत्त्वपूर्ण है, वहीं किसी राजस्थानी कवि के रूप में सांवर दइया का वैश्विक चिंतन और एक भारतीय कवि के रूप में अपने परिवेश से सांस्कृतिक जुड़ाव भी रेखांकित करना होगा। असल में राजस्थानी रचनाकार अपनी मातृ भाषा से प्रेम करते हैं वहीं वे हिंदी के प्रति भी भरपूर आदर भाव रखते हैं। यही करण है कि राजस्थान के अनेक रचनाकारों ने राजस्थानी के साथ हिंदी में भी मौलिक रचनाएं दी हैं।
राजस्थानी और प्रांतीय भाषाओं की रचनाओं के हिंदी में आने पर हम जिसे भारतीय साहित्य कहते हुए उसे जानने के मार्ग सुगम होते हैं। भारत जैसे बड़े भौगोलिक परिवेश के देश में जहां वैश्विक चिंतन परक रचनाएं विपुल मात्रा में है वहीं नितांत निजी और लोकरंगों के साथ आंचलों की विविधताओं को भी बहुत सुंदर ढंग से रचनाओं में प्रस्तुत किया गया है। इसी अवधारणा के अंतर्गत इस संकलन की रचनाओं को देखा-परखा जाना उचित होगा। कवि सांवर दइया अपनी आरंभिक कविताओं में जहां कथात्मक ढंग से बात कहने पर विश्वास रखते थे, वहीं बाद की कविताओं खासकर ‘आखर री आंख सूं’ और ‘हुवै रंग हजार’ तक आते-आते उन्होंने कविता की लय में जैसे सूक्ष्मता को साध लिया है। वे बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बात कह जाते हैं। जैसे-
जरूरत है इतना-सा जान लें
यह दुनिया है बाजार
और हवा के होते हैं रंग हजार! (पृष्ठ-17)

आप के खिलाफ हो रही है हवा
जो मेरी
और मुझ जैसों की बढ़ाती है हिम्मत
अब हमारे लिए
यह हवा हथियार है। (पृष्ठ-31)
हवा के हजार रंगों की पहचना कवि अपने पाठकों को करा सकता है वहीं शब्दों के माध्यम से हवा को हथियार भी बना सकता है। दिन में सूरज से संबंध जोडऩे का विश्वास ही अंधेरे और आंधी से लडऩे का रास्ता हो सकता है। हमारे समय के उजाले और अंधेरे के खेल में अपने पाठकों के साथ कवि खड़ा है-
आज मैं ने
दिन में
सूरज से संबंध जोड़ा है

आज मैं ने
रात को
एक दीपक जलाया है

सुनो!
अंधेरे और आंधी को
खबर कर देना! (पृष्ठ-40)
सांवर दइया की कविताएं अपने समय को अभिव्यक्ति करती आम आदमी की आस्था, विश्वास और आशाओं की कविताएं हैं। वे जहां एक तरफ प्रकृ ति के विभिन्न बिंबों को प्रयुक्त करते हुए जीवन और प्रकृ ति की साम्यता के गीत गाते हैं, वहीं दूसरी तरफ आधुनिक जीवन की बदलती दिनचर्या और जीवन-शैली के बीच मानवीय मूल्यों को बचाए रखने की पैरवी भी करते हैं।
कहने को बहुत कुछ कहा जा सकता है किंतु अंत में बस इतना ही कि कवि सांवर दइया की इस संकलन में संकलित कविताओं को कालक्रम के अनुसार नहीं वरन उनके कवि की समग्र भावभूमि के आकलन के लिए प्रस्तुत किया गया है। इन कविताओं में जहां आपको किसी नए कवि की भाषा से मुठभेड़ मिलेगी, वहीं समर्थ कवि का शब्द-साधना और बांकपन भी। एक बात सभी कविताओं में यहां उभयनिष्ठ है- कवि की सरलता और सहजता। बिना किसी उलझाव के अपनी बात को सरल-सहज शब्दों में प्रस्तुत करना उन्होंने संभव बनाया और मैंने भरसक प्रयास किया है कि अनुवाद के माध्यम से उनकी भाषा-शैली के साथ भावों को उन्हीं के अंदाज में प्रस्तुत कर सकूं । मैं कितना सफल रहा, यह तो सुधि पाठक ही निर्णय करेंगे।
यहां मैं अपने अग्रज कवि मित्र और इंडिया नेटबुक के निदेशक आदरणीय डॉ. संजीव कुमार जी को आभार लिखकर उनके प्रति मेरे सम्मान को यह जानते हुए कि वह शब्दों में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, व्यक्त करता हूं। मुझे विश्वास है कि इस संकलन से हिंदी पाठकों की कवि सांवर दइया के प्रति रुचि विकसित होगी और वे उनकी रचनाशीलता से अधिक परिचित हो सकेंगे। आपके विचारों का स्वागत है।

(‘सांवर दइया की चयनित राजस्थानी कविताएं’ पुस्तक की भूमिका से)