उनके पिता महाराजा बदन सिंह ने डीग को सबसे पहले अपनी राजधानी बनाया और बाद में महाराजा सूरजमल ने भरतपुर शहर की स्थापना की। महाराजा सूरजमल ने सन् 1733 में खेमकरण सोगरिया की फतहगढी पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त कर यहाँ 1743 में भरतपुर नगर की नींव रखी जो सन् 1753 से उनका निवास हुआ। उन्होने जयपुर के महाराजा जयसिंह से भी दोस्ती बना ली थी। 21 सितम्बर 1743 को जयसिंह की मौत हो गई और उसके तुरन्त बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में गद्दी के लिये झगड़ा हुआ।
महाराजा सूरजमल बड़े बेटे ईश्वरी सिंह के पक्ष में थे जबकि उदयपुर के महाराणा जगत सिंह माधोसिंह के पक्ष में थे। बाद में जहाजपुर में दोनों भाईयों में युद्ध हुआ और मार्च 1747 में ईश्वरी सिंह की जीत हुई। एक साल बाद मई 1748 में पेशवाओं ने ईश्वरी सिंह पर दबाव डाला कि वो माधो सिंह को चार परगना सौंप दे। फिर मराठे, सिसोदिया, राठौड़ वगैरा सात राजाओं की फौजें माधोसिंह के साथ हो गई और ईश्वरीसिंह अकेला पड़ गया मई 1753 में महाराजा सूरजमल ने फिरोजशाह कोटला पर कब्जा कर लिया।
दिल्ली के नवाब गाजी-उद-दीन ने फिर मराठों को सूरजमल के खिलाफ भड़काया और फिर मराठों ने जनवरी 1754 से मई 1754 तक भरतपुर जिले में सूरजमल के कुम्हेर किले को घेरे रखा। मराठे किले पर कब्जा नहीं पर पाए और उस लड़ाई में मल्हार राव का बेटा खांडे राव होल्कर मारा गया। मराठों ने सूरजमल की जान लेने की ठान ली थी पर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की मदद से मराठाओं और सूरजमल में संधि करवा दी। वेंदेल के अनुसार जर्जर मुगल-सत्ता की इसी कालावधि में जाट-शक्ति उत्तरी भारत में प्रबल शक्ति के रूप में उभरकर सामने आई। सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद सन् 1748 के उत्तराधिकार युद्ध में मराठों और राजपूतों सहित सात राजाओं की शक्ति के विरुद्ध कमजोर परन्तु सही पक्ष को विजयश्री दिलाकर सूरजमल ने जाट-शक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की। उसी समय मुगलों का कोई भी अभियान ऐसा नहीं था जिसमें जाट-शक्ति को सहयोग के लिए आमंत्रित न किया गया हो। वजीर सफदरजंग तो पूर्णरूप से अपने मित्र सूरजमल की शक्ति पर अवलम्बित था। अपदस्थ वजीर सफदरजंग के शत्रु मीरबख्शी गाजीउद्दीन खां के नेतृत्व में मराठा-मुगल-राजपूतों की सम्मिलित शक्ति सन् 1754 में सूरजमल के छोटे किले कुम्हेर तक को भी नहीं जीत पाई। सन् 1757 में नजीबुद्दौला द्वारा आमंत्रित अब्दाली भी अपने अमानवीय नरसंहार से सूरजमल की शक्ति को ध्वस्त नहीं कर सका। देशद्रोही नजीब ने उस समय वजीर गाजीउद्दीन खां और मराठों के कोप से बचने के लिए अब्दाली को हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए सन् 1759 में पुन: आमंत्रित किया था।
पानीपत के अंतिम युद्ध से पूर्व बरारी घाट के युद्ध में मराठों की प्रथम पराजय के बाद सूरजमल के कट्टर शत्रु वजीर गाजीउद्दीनखां ने भी भागकर जाटों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। वेंदेल के अनुसार ‘मुगल अहंकार की इतनी कठोर और इतनी सटीक पराजय इससे पहले कभी नहीं हुई थी’। वस्तुत: मुगल सत्ता का गर्वीला और भयावह दैत्य धराशायी हो चुका था जिसके अवशेषों पर महाराजा सूरजमल के नेतृत्व में विलास और आडंबर से दूर, कर्मण्य, शौर्यपरायण, निर्बल की सहायक, शरणागत की रक्षक, प्रजावत्सल, हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक, राष्ट्रवादी जाट-सत्ता की स्थापना हुई।
महाराजा सूरजमल की उदारता
14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती7 महाराजा सूरजमल ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी में भी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे। दस दिन तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्_ा किया। सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, एक सेर अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें।
कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरयाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बात उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं। बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए। महाराष्ट्र में ‘डांगे’ भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरयाणा में ‘दांगी’ भी उन्हीं की शाखा है। मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते। 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। वीरों की सेज युद्धभूमि ही है। 25 दिसम्बर 1763 को नवाब नजीबुदौला के साथ युद्ध में महाराज सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए।(PB)