कमल रंगा
मैं किसी अहंकार का हिस्सा नहीं हूँ और ना ही मैं किसी षड्यंत्र एवं साजिश का परिणाम हूँ। मैं फकत स्वाभिमान को जीने वाला हूँ। हाँ, मैं एक व्यंग्योक्ति की स्वीकारोक्ति का ही फल हूँ। बात का धनी। आन-बाशन को सच्चे अर्थों में जीने वाला। इस संदर्भ में बीकानेर के वरिष्ठ कवि लक्ष्मीनारायण रंगा कहते हैं :
आन-बान औ शान की, घटनाएँ बहुत घटीं,
इक चुटकी पे राज, थपे वो बीकानेर है।
घर से बेघर नहीं। एक नया घर बसाने के संकल्प के साथ। और निकल पड़े थे मेरे पँख लगे संकल्प-शब्द अपने को सही साबित करने।
मेरी यात्रा करीब 546 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई थी। धर कूचां-धर मंजलां। मैं तपती धूप और बळती लू के थपेड़ो को सहता। हाड-मांस कंपा देने वाली सर्दी से लड़ता, पानी की एक-एक बूँद के महत्त्व को समझता। काली-पीली आँधी से मुठभेड़ करता। अपने चंद लोगों के साथ मुसीबतों को पाँव तले रौंदता हुआ। कठिनाइयों को कुचलता हुआ। संकटों और विपदाओं की चुनौतियों को हँसी-मस्ती में उड़ाता हुआ। चरैवेति-चरैवेति-चरैवेति सिद्धांत को मानता चलता रहा आगे और बढ़ता रहा अपनी मंजिल की ओर।
मेरा यह आगे बढऩा एक संकल्प को पूरा करना ही था। मेरे संकल्प के कई अर्थ आज तक निकलते रहे हैं। आगे भी निकलते रहेंगे, परंतु असल में, मैं आपको बताऊँ—हाँ आपको ही बता रहा हूँ।
यह बात अधिक प्रचारित-प्रसारित नहीं है, फिर भी मैं आज आपको बता रहा हूँ—मेरे प्रथम नायक ने जो नवाचार किया। आप भी सोच रहे होंगे कि कौनसा नवाचार? बताऊ राजघरानों की परंपरा के नवचार का, हाँ सैकड़ों वर्ष पहले नवाचार का संकल्प। वो भी चुपचाप। वह नायक बड़ा था। परंतु मन से चाहता था कि उसका छोटा भाई राज करे। उसके माँ-बाप भी शायद यही चाहते थे। यही सोच उसके जहन में थी। और कर डाला निर्णय छोटा राजतिलक कराए, हम चले थरपने अपना नया राज। मेरे इसी प्रथम नायक की राम जैसी त्याग-भावना को लोगों ने ज्यादा समझा नहीं।
खैर! उसे इसकी चाह भी न थी, ना है और ना रहेगी। और तो और, इन सबसे उसके मस्त-मौला अंदाज पर कोई असर नहीं पड़ा।
मैं धोरे-धोरे भटका। थार को खंगाला। कैर-बोरटी की छाँव नीचे बिसांई लेता फिर दो घूँट पानी पी चल पड़ता और रात होते रेशमी बालू के बिस्तर पर सो जाता। फिर हर नई सुबह चल पड़ता भोम पर संकल्प का गढ़ बनाने।
मैं इसी यात्रा में अपने परिजन और अपने सहायकों-सहयोगियों के साथ-साथ पशुओं व अन्य संसाधनों की भी देखभाल, सार-संभाल करता रहता। हाँ, अपना उनके प्रति दायित्व निर्वहन भी करता रहता। सबके साथ समभाव। सबके साथ सद्व्यवहार।
जोधाणा घर से निकल, न जाने कब-कहाँ किस तिथि-मिति को मैं कहाँ रुका। आज मुझे ठीक-ठीक याद नहीं। पर यह तय है, जहाँ भी रुका अपने अंदाज से रुका और आलीजापन के साथ ठहरा। वर्षों की यात्रा करते-करते मैं आ पहुँचा कोडमदेसर धाम।
हाँ, वही कोडमदे भैरव मंदिर वाला धाम। यहीं मन बना बसने का। तभी तो ठहराव रहा लगभग 16 वर्षों का। इन्हीं 16 वर्षों में चौफेर की रंगत देखी-समझी। अपने कुल-परिवार की समृद्ध परंपरा को कायम रखते नए माहौल और नई आबो-हवा में, मैं रच-बसने लगा।
भाईचारा, अपणायत और धर्मनिर्पेक्षता की सिफ बात नहीं करता, असल में अमल में लाता हूँ। साथ ही मेरा पूरा कुनबा भी। क्योंकि मेरे इस अभियान में सभी धर्म-जाति के लोग थे। कोडमदे भैरव के धाम हिंदू-मुस्लिम सब एक साथ। न जात-पात, न भेदभाव। यही तो मेरे सोच की नींव है। आज छह शताब्दी से आगे का सफर तय कर चुका मैं उसी सोच की भव्य जमीन पर पूरा बीकाणा लिए खड़ा हूँ। तभी तो वरिष्ठ शायर अजीज आजाद कह गए :
मेरा दावा है सारा जहर उतर जाएगा।
मेरे शहर में दो दिन ठहर के तो देख।।
इसी क्रम में वरिष्ठ कवि लक्ष्मीनारायण रंगा कहते हैं :
बीकानेर की जिंदगी, सब का सांझा सीर।
दाऊजी मेरे देवता, नौगजा मेरे पीर।।
कवि-शायरों ने मुझे अपने भाव-बिंब-प्रतीक आदि के माध्यम से व्यक्त किया। मैं उन्हें आशीर्वाद देता हूँ। मैं उनके सृजन को आगे भी रेखांकित करता रहूँगा।
कोडमदे धाम के लंबे ठहराव के दौरान कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए। मैं अलमस्त-मस्ताना जरूर, परंतु एक कर्मयोगी भी हूँ। अपनी नई जमीन—अपना नया घर हो, यह संकल्प भी पूरा करना था। यह सौभाग्य कहूँ या कुछ और, ठीक-ठीक कुछ नहीं कह सकता, परंतु मैं कोडमदे धाम अपना नहीं सका। बात स्पष्ट, नया राज नहीं थरप सका। पाँचों अंगुलियाँ एक-सी नहीं होतीं। लोग भी तरह-तरह के, उनके स्वभाव-व्यवहार भी तरह-तरह का रहा। मेरा वहाँ स्थायी बसना उन्हें ठीक नहीं लगा। मैं उनका नाम-विवरण देना उचित नहीं समझता। बस उस वक्त भी और आज भी यही सोचता हूँ, जो हुआ सो ठीक है।
मैं फक्कड़-अलमस्त। अपनी मस्ती में रहता, फिर भी चौतरफा चौकन्ना होकर रहता। वरना मुझे मेरे अपने ही शायद सही हाल में न रहने देते। मैं अपना वजूद और अपना मुकाम पूरा न कर पाऊँ, ऐसे सारे उपक्रमों के जाल को मैंने मस्ती-मस्ती में ही सही पर कहीं अंतस सजग रहते हुए ध्वस्त कर दिए थे। मेर मन बेचैन रहने लगा। मुझे लगा, वा पावन भोम, वो ताजी हवा, वो रंगत, वो मस्ताना वातावरण, जो कोडमदे धाम से भी अधिक कहीं है, मुझे वहीं बुला रहे हैं।
मेरे साथी-संगी भी पीठ दिखाने वाले नहीं थे। वे भी जैसे भी हो, हर हाल में मस्त रहने वाले थे। बस मेरे साथ जीने-मरने के संकल्प के साथी थे।
सुबह से शाम तक अपना-अपना कर्म करते, हमेशा मस्त मनमौजी रहते। बात-बंतल। हँसी-मजाक। कहानी-किस्से, गीत-गायन व संगीत आदि से भी रिश्ता बनाए रखे हुए थे। हम सभी समय की साक्षी में अपनी यात्रा के पड़ाव-ठहराव एवं गति से संगत करते रहे। मैं इसी संगत के साथ अपने अभियान का नेतृत्व करता रहा। मुझे अब स्थायी-बोध सताने लगा।
यह मेरी अंत:चेतना का ही असर था कि मैं मस्तमौला-फक्कड़ होते हुए भी सोच-समझ और चेतना के धरातल पर ठोस रहा हूँ। आज भी हूँ और आगे भी रहूँगा। दृढ़निश्चय, संकल्पपूर्णता की इच्छाशक्ति एवं कर्म विश्वास के पक्के इरादों से परिपूर्ण मैं, एक दिन कोडमदे धाम से कूच का निर्णय कर बैठा। फिर वही संघर्षमय यात्रा प्रारंभ। परंतु इस बार यह यात्रा छोटी थी।
मैं आ पहुंचा 527 वर्ष पहले आज के बीकाणे की पावन धरा पर, माँ करणी की कृपा प्राप्त कर रातीघाटी पर झंडा गाड़ दिया। थरप दिया नया शहर। अपना शहर। अपणायत-भाईचारे का शहर। आलीजा-मस्ताना शहर। और मेरी इसी थरपणा पर कवि ने रच दिया एक दोहा :
पनरै सौ पैंताळवे, सुद वैसाख सुमेर।
थावर बीजां थरपियो, बीके बीकानेर।।
इसी तरह मेरी सोच की जमीन को रेखांकित इस तरह किया गया :
समाजवादी परम्परा सदा रही यहाँ,
राजतिलक हलधर करे, वो बीकानेर है।
यह स्पष्ट है कि मेरा यानी बतौर राजनायक तिलक हलधर के नायक किसान ने किया। यही समाजवादी सोच का बीज मेरी थरपणा के साथ ही बो दिया गया था। वो आज माटी के कण-कण में एवं जन-जन के मन में फल-फूल रहा है।
मैं राती घाटी पर बसा। बीकाणा मेरा नाम। बीका मेरा नायक बना। नेरा मेरा संवाहक बना। और चल पड़े हम थरपने नए आयाम। अलमस्ती में भी ठोस और ठावे मुकाम। मैं मेरी नई बसावट के साथ ही अपनी जीवन-शैली के साथ-साथ अपने जीवनमूल्यों एवं सिद्धांतों के प्रति हमेशा सचेत रहा हूँ।
अब मैं मेरी कुछ आलीजापन आदि की विशेषताओं को संक्षिप्त में रेखांकित करना चाहूँगा। परंतु उससे पहले मेरी कुछ अन्य बातें भी बता दूँ।
बीकानेर की बसावट के समय में चारों दिशाओं में चार क्षेत्रपाल (भैरव बाबा) की मूर्तियाँ स्थापित की थीं। यह शायद मेरा कोडमदे धाम का लंबा जुड़ाव ही रहा होगा। रणबंका राठौड़ की यह वीर प्रसविनी, वीर भोग्याधरा अपने अस्तित्व काल से ही शक्ति और भक्ति, रस रंग और रक्त, शस्त्र और शास्त्रीयता की उपासक रही है। अनेक आध्यात्मिक महापुरुषों एवं दार्शनिकों की साधना-स्थली रही है। कवियों-साहित्यकारों, वीर-वीरांगनाओं की जन्मभूमि रही है। अनेक युद्धवीर, कर्मवीर, धर्मवीर, दानवीर राजाओं एवं महामानवों की कर्मभूमि रही है। कलाकारों, चिंतकों, दार्शनिकों की दर्शन-भूमि रही है। लोकदेवता, लोकदेवियों की आराध्य भूमि रही है। मेले-मगरिये, पर्व-त्योहारों की रंगभूमि रही है। मेरी इस पावन धरा की कई अन्य विशेषताएँ हैं—
कोलायत की पावन धरा पर सांख्य-दर्शन के प्रणेता महामुनि कपिल ने अपनी माँ देवहुति को आध्यात्मिक ज्ञान दिया। देशनोक की काबों की करणी माता ने अलौकिक चमत्कार दिखाए। बीकाजी को बीकानेर बसाने का आशीर्वाद दिया। मंडोर के गोरेजी भैरूं की स्थापना कोडमदेसर में ही, जो लोक-आस्था के आज भी केंद्र हैं। दूर-दूर से दर्शनाभिलाषी आध्यात्मिक पिपासु आज भी मेले-पर्व आदि पर भारी संख्या में यहाँ आते हैं। नागणेची जी और लक्ष्मीनाथ जी यहाँ के आराध्य-देवी-देवता हैं।
बीकानेर साधु-संतों-महात्माओं की पवित्र नगरी रहा है। यहाँ के लोग धार्मिक भाव वाले सहज-सरल लोग हैं और आज भी अपनी यह पहचान बनाए हुए हैं। यहाँ लोग गोगामेड़ी के लोकदेवता गोगाजी व बिश्नोई संप्रदाय के प्रवर्तक जांभोजी, सिद्ध जसनाथ जी आदि में गहरी आस्था रखते हैं। एक लंबे समय से बीकानेर धर्म, अध्यात्म एवं दर्शन की भूमि के रूप में परिचय बनाए हुए हैं। धोरों की इस धरती का पानी 60 पुरस अर्थात 360 फीट गहरा है। इतने ही गहरे हैं यहाँ के लोग। सहज, सरल, स्नेही, प्रेमी, पुजारी, बंधुताधर्मी, सीधे-साधे, स्वाभिमानी, सम्मानी, परिश्रमी, अध्यवसायी, नि:स्वार्थी एवं निष्कपटी हैं। ना ही इनके अति महत्त्वकांक्षाओं के पँख लगे हैं और ना ही यह भौतिकता के आकाश में अणूती उड़ान लगाते हैं। यह तो बस शांति और प्रेम का जीवन जीते हैं।
बीकानेर कला क्षेत्र में भी अपनी सृजन-उत्कृष्टता के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। स्थापत्य-कला में बीकानेर न्यारा-निरवाला है। दुलमेरा के लाल पत्थर पर उत्कीर्ण कलात्मक बेल-बूंटे तथा कल्पनात्मक अंकन दर्शनीय एवं चमत्कारी हैं। जूनागढ़, लालगढ़, गजनेर महल मानो सोनलिया भूमि पर लाल गुलाब खिले हैं। रामपुरिया, डागों, बैदों की हवेलियाँ तथा भैरूंदानजी कोठारी की हवेली कलात्मक आकर्षण का केंद्र रही है, जिनकी बारीक खुदाई तथा सूक्ष्म अंकन देखने वालों को अभिभूत करते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी कला-साधना करने वाले कलाकारों ने पत्थरों में प्राण फूंके हैं। यहाँ के मंदिरों में देशनोक का करणी माता मंदिर, रतनबिहारी जी के मंदिर, लक्ष्मीनाथ जी का मंदिर, नागणेची जी का मंदिर, भांडासाह जैन मंदिर, चिंतामणी मंदिर आदि कलात्मक एवं दर्शनीय हैं। इसी तरह धीरे-धीरे मेरी कई पीढिय़ों के नायकों की छतरियाँ कलात्मकता की पारदर्शियाँ हैं। इसके साथ ही जाली-झरोखों, गोखों पर सूक्ष्म कलात्मक उत्कीर्ण बीकानेर के मेरे अपने ही कलाकारों की छैनी, हथौड़ी के जादू का कमाल है।
इन सब के साथ मैं यह भी बता दूँ कि मेरे महलों, मंदिरों, हवेलियों तथा अन्य स्थानों पर चित्रित मथेरणा व उस्ता कला आज भी विश्व के आकर्षण का केंद्र है। मेरे बाद के नायकों ने समय-समय पर जूनागढ़ में कर्णमहल, चंद्रमहल, फूलमहल, एवं बादलमहल और डूंगर-निवास आदि की छतों, दीवारों, स्तंभों पर सुरुचिपूर्ण कलात्मक चित्रकारी तथा सुनहरा काम दर्शकों को स्वप्नलोक में ले जाने में समर्थ-सफल है। ऊँट की खाल पर सोने की कलात्मक चित्रकारी अनूठी है।
मेरे शहर के कंठों गाए जाने वाले हरजस का मिठास मेरी हांडी वाली मिश्री से भी ज्यादा मीठा है। वहीं मेरे शहर में होती अजान एक अलग ही माहौल बनाती है। मेरे जसनाथी भाई अग्निनृत्य का जलवा बिखेरते हैं। हवेली-संगीत गूँजता है तो सितार के तार भी झनझनाते हैं। शास्त्रीय संगीत हो या माड गायन, सभी की अपनी-अपनी मठोठ एवं मिठास है।
कहने में तो मैं बहुत कुछ कह-बता सकता हूँ, परंतु मैं चाहता हूँ मैंने जो बताया वह तो उल्लेखनीय है ही, परंतु मेरा कुछ ऐसा आलीजापन भी है, जो मुझे आज भी औरों से अलग पहचान दिए हुए है।
लंबा सफर तय कर चुका हूँ मैं। रंगबाजों की रंगत का शहर। शहरों में शहर में बीकाणा। तभी तो हर जुबान पर आज भी हे—वाह! बीकाणा वाह!
‘वाह! बीकाणा वाह!’ का उद्घोष करता यहाँ का वासिंदा अपने को धन्य समझता है। समझे भी क्यों नहीं उसकी वाह! सार्वभौमिकता लिए हुए है, जिसमें मेरी लोक-संस्कृति, स्थापत्य कला, साहित्य, संगीत, कला सांप्रदायिक सद्भाव, अध्यात्म की ऊँचाई के साथ एक खास जीवनशैली भी है, जिसको संजोये मैं अपने आलीजापन से अलग एवं अनूठी पहचान लिए हुए हूँ। इतिहास की परत-दर-परत नई कहानी लिखता रहा हूँ। मैं वर्तमान की भागती साँझों में भी कुछ थमकर ‘थावसÓ से जीता हूँ। एक और नई कहानी की भावभूमि के लिए।
हर क्षेत्र में उतार-चढ़ाव से गुजरता मैं आज भी आधुनिक भौतिकवादी एवं उपभोक्ता संस्कृति के दौर में भी एक ‘फक्कड़Ó, ‘मनमौजीÓ एवं अलमस्त अंदाज लिए एक रोचक जीवन-दर्शन को जीता हूँ।
अपनी इसी खास जीवन-शैली के कारण मैं अपनी अलग ठौड़ रखता हूँ। जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों, भौतिक, आर्थिक दबावों, बढ़ती कुंठाओं, विकृत मानसिकताओं के बढ़ते फैलाव एवं संघर्ष की तपन को सामूहिक या सार्वजनिक रूप में चंद ‘जुमलोंÓ के जरिए आप में बाँट लेता हूँ, सहज भाव से।
मेरे ‘जुमलों’ का आनंद पूरा शहर आज 21वीं सदी में भी इस कदर लेता है कि जैसे वह जुमले ना हुए कोई दोहा, सूक्ति या कहें राम-रहीम का नाम हो। यही जुमले अपने अर्थ की व्यापकता एवं संदर्भों की गहराई को अपने में समेटे होते हैं, जिसेे सार्थक अर्थ एवं व्याख्या को समझने वाले ही समझते हैं। ना समझे सो अनाड़ी वाली बात हो जाती है।
इन्हीं जुमलों में मेरी लोकआत्मा, लोकजीवन-शैली, लोक-व्यवहार, लोकरंग-रूप एवं दर्शन छिपा है। चंद जुमले बानगी के तौर पर रखकर मैं वाह! बीकाणा वाह! से आपको रूबरू करवा ही देता हूँ। जो आज भी कई अर्थ लिए जिंदा हैं।
शहर में गोधों की लड़ाई सैकड़ों वर्ष पुरानी है। छोटे-बड़े हर उम्र के वाशिंदे के मुँह से इस लड़ाई को देखते ही ‘ओए ओए ढिर्र-ढिर्र…Ó की गूँज चारों ओर फैल जाती है। समय के साथ-साथ गोधों को पालना एवं उनकी लड़त आयोजित करवाना, तो खतम-सा हो चुका है। नए दौर में यही जुमला ‘ओए ओए ढिर्र-ढिर्र…’ अब राजनीति एवं अन्य क्षेत्रों में अपना नया स्थान बना रहा है।
‘चालो माजी कोटगेट, कोटगेट का चार आना…’ की आवाजों से सराबोर रहती सड़कें, अब चारों और फैल रहे धुएँ को अपनी साँसों में घोल ऐसी मीठी बोली भूल चुकी है। फिर भी चुटकी भर जर्दा हथेली पर रख श्वेत चूने के संग विचारों के उतार-चढ़ाव के बीच जर्दे के इस प्रिय मिश्रण पर थापी की आवाज के साथ आज भी बड़े सहज भाव से दूसरी ओर से यह आवाज आ ही जाती है—’दो पत्ती म्हैं भी लेस्यां…Ó, जिसे बड़े आत्मिक भाव से स्वीकार कर अदब से मेहमान नवाजी करना नहीं भूला हूँ मैं। इसी में छिपी है मेरी समाजवादी जीवन-शैली।
अपने से बड़ों को मान-सम्मान की समृद्ध परंपरा को आज भी गरिमापूर्ण भाव दिए हुए हूँ। तभी तो बड़ों को ‘पगेलागणाÓ करना नहीं भूला हूँ। साथ ही हमउम्र, हमविचार एवं हमसाथी को बड़े प्यार से आज भी पुकारता हूँ, ‘आव भायला, क्या हालचाल है…?Ó इस संबोधन में कहीं भी आज की भौंडी मानसिकता नहीं है।
आज की भागम-भाग जिंदगी में भी ठहर कर पूछता हूँ, ‘क्यों, कठै जाय आयो, कठै जावै है…?Ó। इसी तरह ‘रंग की सारÓ किसी रंगबाज की रंगबाजी पर, ‘क्या बात है…Ó। कहकर उत्साहवद्र्धन करना नहीं भूलता हूँ। संघर्ष करने वालों को आज भी ‘लड़तियो… है… रे…Ó कहने से नहीं चूकता हूँ।
मेरे हर मोहल्ले, चौक-गवाड़ में पाटों का अपना इतिहास है। पाटे मात्र निर्जीव नहीं है। पाटे शहर की शानदार-जानदार जीवनशैली एवं संस्कृति को देखते, भोगते, समझते, परोटते हैं। कहने को तो एक-एक पाटे की अपनी-अपनी अलग-अलग कहानियाँ हैं, जिन्हें कहना या लिखना बहुत लंबा-चौड़ा काम है। फिर भी पाटों के बारे में कुछ इस तरह बता रहा हूँ।
पाटों पर बैठे मेरे लाडेसर अपनी बैठकें कुछ कम जरूर कर रहे हैं, जो पाटों के एकाकीपन की व्यथा को तो दर्शाती है, फिर भी मौके-टाँके अपने पूरे कोरम के साथ चर्चाओं के दौर में देर रात तक आज भी खोया रहता है। यही मेरा आलीजापन पाटों की शान है।
इन्हीं पाटों पर घर-गवाड़ी से लेकर विश्वस्तरीय विचारमंथन होना एक सामान्य प्रक्रिया है। न जाने कितने एवं किस तरह के बौद्धिक व अन्य तरह की बात-बंतल का साक्षी रहा पाटा, अबोला होता हुआ भी, मेरे शहरवासियों के मुँह बोलता है। पाटों पर हुई उद्घोषणाएँ राजकीय राजपत्र यानी गजट में छपे किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय आदि की भाँति ही आज भी अपनी ‘पाटा गजटÓ साख को बचाए हुए है।
सुबह-शाम दर्शन-डेरों के बीच आर्थिक दबाव को पहचान, दिन के उजाले में अपने को श्रम साध्यरत रखते हुए मेरे लोग साँझ ढलने से पहले-पहले बगेचियों की सिल्ला-लोढ़ी पर घुटती बूंटी (भांग) को भगवान शंकर का प्रसाद लगा चरणामृत लेना नहीं भूले हैं। वहीं यह कहना भी नहीं भूले हैं :
पैले साफी साफ कर, पीछै भांग चढ़ाय।
चला जाव कैलाश को, शिव को सीस निवाय।।
सावण की गोठों के स्वाद से अभी भी शहर की जीभ चरपरी है। तो चायपट्टी की कचौड़ी-पकौड़ी से भी रिश्ता बनाए हुए हैं मेरे लोग। तालाबों के बचे-खुचे प्रदूषित पानी में भी ‘गंठेÓ लगाना याद है—मेरे तैराकियों को।
चारों तरफ फल गई कॉलोनी संस्कृति के बढ़ते हुए आवासीय दबावों के बीच अखबारों में हमेशा छपी अतिक्रमण की खबरों से दूर, मेरे ममतालू बेटों ने आज भी हो सके जहाँ तक अपने को समाए रखा है, अपनी ‘साळ-बरसाळी के बीच अपनी चौक संस्कृतिÓ को जिंदा रखते हुए।
‘माड़ साÓबÓ की आवाज देते ‘हे राम… हे राम…Ó कहते हुए चारों ओर परिक्रमा निकालता ‘ईरीÓ आदि कहने में भी संकोच नहीं करते मेरे धर्मी-कर्मी बेटे।
‘हाय डावड़ीÓ से बात शुरू करती मेरे यहाँ की जनानी अपनी मर्यादाओं को अभी भूली नहीं है। शिक्षा का महत्त्व समझ आगे बढ़ती जनानी अपनी शालीन परंपराओं का निर्वाह करना अपना फर्ज समझती है।
किसी असामाजिक तत्त्व या गलत व्यक्ति का आ जाना आज भी अखरता है मेरे लोगों को और वे तुरंत कह देते हैं, ‘फेर आयग्यो…Ó।
लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी बीकानेरी आज भी कह देते हैं, ‘फेर दे वोट… नैं…Ó और इसी के साथ ‘कूड़ो-कूड़ोÓ बड़े प्रेमभाव से कहकर शान खराब करना आज भी आता है।
‘फागड़दोंÓ को अपनी स्पष्टवादी शैली में आज फटकार लगा देता है और कह उठता है, ‘क्यों रम्मत घाते हैÓ।
इस तरह चंद बानगी के ‘जुमलोंÓ से ही मेरे आलीजापन की झलक सामने आ ही जाती है। मेरी रंगत की परत आज भी अपनी साफ-भोली, आत्मिक, समन्यवादी, स्पष्टवादी एवं मनमौजी आदि न जाने कितनी विशेषताओं को लिए जिंदा है। वाह! बीकाणा, क्या रंग है!
एक रंग और बताता हूँ जो मेरी थरपणा के साथ जुड़ा हुआ है। जिसे आज भी बतौर रस्म यह शहर मानता है। वह है—पतंगबाजी यानी किन्ना उडाना, वो भी मेरी बरसगांठ की खुशी में।
पतंगबाजी का लंबा इतिहास समाए हुए हूँ मैं। इसकी रंगत ही न्यारी है। यह आलीजापन अपने आप में और भी विशिष्ट है।
मैं एक ओर अपने अतीत के गौरव में जीता हूँ, वहीं भविष्य के प्रति भी चौकन्ना-सा हूँ। अपने जीवन की छठी शताब्दी में यात्रा करता मैं अभी थका नहीं हूँ। मेरी अनेकानेक विशेषताएँ हैं, जिनमें मुख्य है पतंगबाजी यानी ‘किन्ना उडाणाÓ। यह मेरी थरपना से जुड़ा हुआ है और आज भी इसे सभी लोग उच्छब के रूप में मनाते हैं।
प्रचंड गर्मी। तेज हवाएँ। काली-पीली आँधी। चारों ओर रेत के टिब्बे। ऐसा ही मंजर था मेरे स्थापना दिवस पर। ऐसे में पतंगबाजी की कल्पना करना ही मुश्किल था परंतु नए नगर की स्थापना को चुनौती के रूप में स्वीकार करना मेरे नायक राव बीका का स्वभाव ही था। तभी तो उस दौर में ‘पतंगबाजीÓ के लिए पतंग का जो रूप स्वरूप बनाया गया वह ‘चंदाÓ कहलाया। चांद के आकार का बड़ा-सा चंदा, उसके नीचे कपड़े की कतरन की लंबी पूँछ। तेज हवा को चीरता हुआ यह चंदा मोटी डोर के सहारे आकाश की ऊंचाई को नापता। तभी से पतंग उत्सव और मेरा स्थापना-दिवस एक-दूसरे के पूरक बने।
एक समय हवा इतनी कम चली कि पतंगबाजी में कठिनाई आने लगी तो मैं कह उठा, ‘गवरा दादी पून दे, टाबरियां रा चंदा उडै…Ó।
समय बदला, स्थिति-परिस्थिति बदली। चंदे की जगह ले ली आज की पतंग ने। मेरे लाडेसर लड़तिये आज भी इस परंपरा का निर्वहन करते आ रहे हैं। चौक-चौक में चंदा उड़ाने की भी रस्म निभाई जाती है। लोग पतंगबाजी अपने अंदाज से करते हैं। किन्ना उडाणा, लड़ाना, काटना-कटवाना सब उपक्रम बड़े प्यार से करता है। मेरे स्थापना पर्व पर हवा में तैरती, इशारों में बातें करतीं, नवयौवना-सी इठलाती-शर्माती शहर के आकाश में लहराती हैं—पतंगें।
चारों ओर ‘बोई काट्या हैÓ की गूँज उठती रहती है। इसी के साथ ‘उडा-उडा, फेर उडा…Ó की चुनौती देता स्वीकारता रहता है। इसी के साथ ‘बूंदड़ बाळ दिया, नाकड़ पर घूम रैयो घुमाय रैयो और तापड़ धुखग्या है…Ó जैसे व्यंग्य बाणों की बौछार करते पंतग की लड़त लेना भी आता है मेरे लड़तियों को।
आस-पास के डागळे पर बिना इजाजत चढ़-उतर कर किन्ना उडाणे या लूटणे में भी माहिर है मेरा शहर। मेरे छोरे कणिया घातलणा, पेटा ठीक करना, किन्ना चेपणा, पखाणिया कराणा, बधारणा, लटाई झालणा, समेटणा, ढेरिया बणाणा, ढेरिया घातणा, ताण लूटणी, मंझे री घुटघुटी घात देणी, बांस के बोरटी झाड़ी बांधणी, किन्ना, मंझा लटाई आदि की सार-संभाल करना जैसे काम आज भी बखूबी करता है।
प्रतिद्वंद्वी की पतंग को काट विजय का उद्घोष करता ‘बोई काट्या हैÓ के साथ अभी भी अपनी पतंग कटवा कर कह उठता है फेर ‘बोई काट्या हैÓ, कितने सहज हैं मेरे पतंगबाज।
इन सभी के साथ कहने को तो मेरे बहुत कुछ है। मेरी विशेषता एवं आलीजापन के किस्से बहुत हैं। फिर भी कुछ को मैं कह चुका हूँ और कुछ और कह रहा हूँ।
मैं आपको नाम की एक ऐसी लिस्ट से रूबरू करा रहा हूँ, जो शायद विश्व में अपने आप में अनूठी-निराली है। यह पुरुष-महिलाओं के असल नाम नहीं हैं, अपितु उपनाम हैं। फिर भी सच्चाई यह है कि आज भी इक्कीसवीं सदी में शहर बीकाणै में बहुत पुरुष-महिलाएँ ऐसी हैं, जो अपने असली-सही नाम से नहीं जाने-पुकारे जाते हैं। उन्हें उनके उपनाम से ही जाना-पहचाना जाता है। गलती से किसी ने असली नाम ले लिया—समझो मामला गड़बड़। यदि उपनाम से उनकी गली, गवाड़ और मोहल्ले में पूछोगे तो तुरंत संबंधित से संपर्क हो जाएगा अन्यथा भटकते रहें।
नाम भी ऐसे-ऐसे कि पढ़-सुनकर कुछ पल सोचना पड़ता है। मस्ती भी आती है, हँसी भी। खैर! क्या आलीजापन है मेरे लोगों का कि नामों से ही अपनी मस्ती-अलमस्ती का मजा लेते हैं।
मैं आपको नामों की एक बानगी रखूँगा, शायद कुछ और भी नाम हों, जो मेरी याद की सीमा से परे रह गए हैं। फिर भी मोटे तौर पर पुरुष-महिला-बच्चों के नाम जो आज भी चलन में हैं, उनका उल्लेख कर रहा हूँ।
इसी संदर्भ में, मैं आपको यह भी बता दूँ कि नाम पशु-पक्षी, सब्जी, औजार, फल, धातु, दैनिक उपयोग के सामान, व्यक्ति स्वभाव, कद-काठी आदि कई एंगल से रखे जाते हैं—पहले बच्चों-पुरुषों के नाम की बानगी देखिए :
बच्चों-पुरुषों के नाम
कुतियो, घोड़ो, डेडरियो, भालू, गेंडो, सुओ, हथियो, कुकरियो, गधो, जिराफ, सुसियो, गज्जू, चीकू, करेलो, आलू, नींबू, होंडो, कुल्लड़ो, ढक्कणो, खुरपलियो, कड़ालियो, कचोळी, बालूशाही, खेरियो, ईंटाड़ी, शन्नू, मन्नू, पन्नू, कन्नू, धन्नू, चूंचूं, टींटियो, तिबरियो, सेणो, डाकू, चींचो, कानो, होबो, खुंडो, टुग्गो, दमू, सेठ, साब, घोटसा, चोर, नेपाली, कळकतियो, जापानी, धसियो, मोरियो, गोरू, चाफू, धनियो, लोटड़ी, भूरियो, चितकबरो, कूकी, मुंशी, सीटी, टीटी, मिरचियो, घोचो, चिडिय़ो, कोचरो, गेनू, गेलूर, छजो, खेजडऩाथ, गट्टू, होलेंडर, आइजन होवर, झमणसा, पट्टू, गूंगो, दूलो, गपलो, पपलो, पपियो, फीनो, नीनो, सीटू, सेणसा, चमचमियो, मोडियो, कजळसा, बुई, टाकल, खाखी, भावो, जिन्नी, पापूड़ी, खेमू, गूंगली, गोळी, लोदी, मकोड़ो, हाकू, गुलजी, तंगड़, टकड़ो, डंकोळी, लल्लू-पल्लू, सूंडो, सम्राट, ढोक्यो, लवरियो, छमियो, मनमन, घम्मो, किलोडिय़ो, खाळियो, बिल्लो, टुडिय़ो, धामो, नागाडिय़ो, टोपसी, मेणियो, टेणियो, चीणो, सैंसी, ज्ञान-बैराग, चकोर-मकोर, गिलारी, जैरी, बिरियो, खूंखली, टोडियो, मोडो, बोखो, बावनियो, झफ्फू, लपूसियो, लट्टू, लट्टूड़ी, घाघो, ढब्बू, नूं, नूसियो, नूनसा, पोलो, फोमलो, भोमो, सहूकारियो, फागू, बिच्छू, होटलो, हाकम, बालू, सनियो, घुन्नाड़, मूसो, धसरियो, मनाड़, फिरकली, लाली, जीसा, दरबार, मनको, फनको, आयलो, टप्पूड़ो, मुनीम, लच्छो, बड़ो, सेंटी, दासी, भासा, ग्वाळियो, सीयो, ढिल्लो, गंगलो, गुच्ची, बच्चो, रावण, बिल्ली, झींटियो, भत्तू, फुलको, डोडो, कंगी, मछियो, बनजी, गोगड़ू, गूंग, नीं, देबू, झापटो, कपसा, लपटी, चाउड़ो, माउड़ो, गींडो, भैंसियो, पागो, कोडो, फोगलो, व्हाइटियो, झोड़ीकट आदि। इन नामों से ही मेरे शहरवासियों के मस्ताने अंदाज का आपको एहसास हो ही गया होगा।
इसी कड़ी में महिलाओं के इन्हीं उपनामों की एक बानगी देखें :
महिलाओं के नाम
धूड़की, सुंई, मींडकी, मींडी, गोगी, सांडी, समरी, हांडी, मंगू, पीपा, टीपू, मोडी, गोधी, गुटिया, हरखली, गट्टी, ताराशकरी, गूंगली, भीखली, फूंदी, बूंदी, चिड़ी, कोचरी, चिलख, नाथी, बकी, मिनकी, भिनकी, सेडा, टबरी, कबरी, फूसकी, छमछम, बाबूड़ी, केसारी, हाउड़ी, जरख, बासकी, जूं, घोघड़ी, दती, धापली, बाइया, चीन, चाउ, घटोल, अणदी, अणचा, गोपली, फींडकी, बरजी, भागली, कागली, अंटू, संटू, चुन्नी, लूंकड़ी, हाकमी, गद्दा, कोडी, गुल्ली, इली, गिल्ली, जोगण, मैनगी, गोरी-किट्टी आदि ऐसे ही प्यारे-प्यारे नाम आज भी बीकाणे की पहचान के साथ कहीं न कहीं जुड़े हैं। ये नाम नहीं, प्यार-अपणायत की मस्तानी अभिव्यक्ति है।
मेरे रसगुल्लों का मिठास, मेरे पापड़-भुजियों का चरकास पूरी दुनिया की जीभ चढ़ा है। मेरी ऊन का गर्मास थर-थर काँपते देश के लोगों को गरमास देता है। मेरा सोनलिया-माखणिया बालूई मरुस्थल का सौंदर्य और उसके बीच दुलमेरा के लाल पत्थरों से बनी दाड़मी हवेलियाँ, सोने की कलम की उस्ता कला, मांड के मीठे सुर और घूमर की लूमती-झूमती ताल-लय देश-विदेश के पर्यटकों-कला विशेषकों को अपने यहाँ बरबस खींच लाती है।
एक तरफ यह सब-कुछ है। वहीं आज भी मस्ताना मेरा शहरवासी तीनधडिय़ां नहीं भूला है। ना ही भूला है अपने भाईपे के जीमण आदि। और तो और, वह अपने ही राजा-महाराजा के किस्से-कहानी आज भी निराले अंदाज में बयां करता रहता है। वह अपनी मुलायम-सी, कोमल-सी भावना को हावड़ा पुल से गुजरता इस तरह व्यक्त करता है—’वाह! राजा गंगासिंह, क्या पुळ बणायो हैÓ? ऐसे कई प्रसंग जुड़े हैं मेरे आलीजापन के।
सावण इन बीकानेर कहावत मेरे पर सौ प्रतिशत सिद्ध होती है, क्योंकि मैं आज भी मेले-मगरियों से रंगीला-रसीला-सुरीला हूँ। सुरंगा सावण मेरे यहाँ का अनुपम सुंदरता का पर्व है। तभी तो कहते हैं :
सीयाळो खाटू भलो, ऊनाळो अजमेर।
मारवाड़ नित रो भलो, सावण बीकानेर।।
अंत में, मैं यह कहूँगा कि सदियों के सफर के साथ-साथ मैं भी दुनिया के बदलते रंगों को देखता रहा हूँ। आज मैं वैश्वीकरण, उपभोक्ता संस्कृति, साइबर क्रांति व उत्तर आधुनिकता युग की रंगत और बदलावों को देख रहा हूँ। पर मुझे गर्व है मेरे लाडले अपने को युगानुकूल ढालते हुए भी अंध-भौतिकता के शिकार नहीं हो रहे हैं। स्वर्णी चकाचौंधी सभ्यता की चकाचौंध में वे अपनी संस्कृति, अपने संस्कार, अपने मन-मिजाज को खो नहीं रहे हैं। मैं अंत में कवि श्री लक्ष्मीनारायण रंगा की इन दो पंक्तियों के साथ समपान करना चाहूँगा :
संस्कृति के चंदन-चरण, सभ्यता मिटा रही।
साँस-साँस संस्कृति रचे, वो बीकानेर है।।
बीकानेर (राज.) मो. 09928629444