नये संसद भवन का कल उद्घाटन है। आजादी के 75 साल बाद नया भवन बना है, लोकतंत्र के लिए ये गर्व की बात है। ब्रिटिश हुकूमत के समय का भवन ही अब तक काम आ रहा था। यदि सरकार ने उसे छोड़ नया बनाया है तो उपलब्धि है। मगर उद्घाटन से पहले ही नये संसद भवन को लेकर रार हो गई, सही या गलत कौन ये तो पता नहीं, मगर रार चिंता करने लायक है।
इस नये संसद भवन का उद्घाटन पीएम करेंगे, बस यही विवाद का कारण बन गया। क्योंकि सरकार ने इस उद्घाटन से पहले विपक्ष से चर्चा नहीं की। संसदीय कार्य मंत्री या लोकसभा अध्यक्ष यदि विपक्ष के साथ बैठक कर सब तय करते तो विवाद नहीं होता। विपक्ष को तो विरोध का अवसर चाहिए। उद्घाटन के कार्यक्रम का जो कार्ड है उसमें न तो महामहिम राष्ट्रपति जी का और न महामहिम उपराष्ट्रपति का नाम है। स्वाभाविक है कि जब पीएम उद्घाटन करेंगे तो उनका ही नाम होगा।
तीन बड़ी वजह थी, जिससे विपक्ष ने इस मसले पर विवाद खड़ा कर दिया। पहला तो भाजपा की कर्नाटक में हार हो गई। दूसरा दिल्ली सरकार माननीय सुप्रीम कोर्ट में अफसरों के तबादले का केस जीत गई मगर केंद्र सरकार ने अध्यादेश से स्थिति उलट दी। तीसरे कांग्रेस व नीतीश अगले आम चुनाव के लिए विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास कर रहे हैं। इन तीन मोटे कारणों के अलावा विपक्ष की उपेक्षा भी एक कारण है, यूं तो हर मामले में एक दशक से विपक्ष देश की राजनीति में उपेक्षित ही हो रहा है।
पहले राहुल गांधी, फिर खड़गे, फिर नीतीश, फिर केजरीवाल, सबने राष्ट्रपति से उद्घाटन न कराने का विरोध किया। फिर तो भाजपा के सभी विपक्षियों ने सुर में सुर मिला दिया। आनन फानन में बात हुई और उद्घाटन समारोह के बहिष्कार की घोषणा कर दी। 20 विपक्षी दलों ने ये घोषणा की है। सरकार उसके बाद चिंतित हुई, उसे विपक्ष के इस निर्णय की उम्मीद नहीं थी। मगर विपक्ष ने बहिष्कार के साथ महामहिम को जोड़ दिया तब विरोध भी थोड़ा नकारात्मक लगने लगा।
इस स्थिति को भांप केंद सरकार के कई मंत्रियों, भाजपा के नेताओं ने विपक्ष से अपने निर्णय पर फिर से विचार का आग्रह किया है मगर कोई असर होता दिख नहीं रहा। क्योंकि अब तो उद्घाटन का ये विवाद पीएम से, भाजपा से और राजनीति से जुड़ गया है। जिसे पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता। विपक्ष का हक़ है कि वो बहिष्कार करे, मगर महामहिम को बीच में नहीं लेना चाहिये। लोकतंत्र की प्रतीक सबसे बड़ी इमारत को विवाद में डालना, चिंताजनक है। कुछ सरकार झुके, कुछ विपक्ष नरम हो, तो लोकतंत्र जीतेगा। दल कोई जीते या हारे, फर्क नहीं पड़ता, लोकतंत्र नहीं हारना चाहिए।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
वरिष्ठ पत्रकार