-जयपुर के नगर निगम क्षेत्र में सफाई पर खर्च होते हर महीने 2 करोड़ 40 लाख रुपए, जबकि विवि प्रशासन ने ढाई करोड़ खर्च करने का तय किया था
– हरीश गुप्ता
जयपुर। राजस्थान की राजधानी के नगर निगम क्षेत्र में कचरा उठाने का हर महीने 2 करोड़ 40 लाख रुपए के करीब खर्च आता है, वहीं राजस्थान विश्वविद्यालय प्रशासन ने केवल विश्वविद्यालय परिसर की सफाई पर हर महीने ढाई करोड़ खर्च करने की तैयारी कर ली थी।
सूत्रों ने बताया कि राजस्थान विश्वविद्यालय प्रशासन ने कुछ समय पूर्व विश्वविद्यालय की सफाई का ठेका हर महीने ढाई करोड़ रुपए में देने की तैयारी कर ली थी। विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने उसे रोक दिया। ऐसे ही परिसर में गार्डन के लिए भी ढाई करोड रुपए महीने ठिकाने लगाने के मंसूबे पर रजिस्ट्रार ने पानी फेर दिया।
सूत्रों की मानें तो हेरिटेज व ग्रेटर दोनों नगर निगम ने निगम क्षेत्र में घर-घर से कचरा उठाने वाले करीब 600 हूपर लगा रखे हैं। इन्हें करीब 40 हजार रुपए हर महीने का भुगतान किया जाता है। जो प्रत्येक माह 2 करोड़ 40 लाख रुपए बैठता है।
ऐसे में सवाल खड़ा होता है क्या विश्वविद्यालय प्रशासन सोने-चांदी चांदी की झाड़ू से सफाई करवाने की तैयारी में था? ऐसे ही ढाई करोड रुपए खर्च कर राष्ट्रपति के रोज गार्डन को फेल करने वाला बगीचा बनवाने की तैयारी करना था? अगर नहीं था तो रुपया किस किस में बंटता? सरकार को जांच करनी चाहिए आखिर ऐसे प्रस्तावों पर चिड़िया किस किस महानुभाव ने बैठाई। उनके संपत्ति की जांच जरूरी नहीं है? शायद जयपुर की सभी कॉलोनियों के गार्डन पर ढाई करोड रुपए महीने का खर्च नहीं आता होगा। सरकारी खजाने में चपत लगाने वाले कौन-कौन है? सामने आने चाहिए।
यह कैसा सुशासन:
एक और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का कहना है उनकी सरकार संवेदनशील, जवाबदेह व पारदर्शी सरकार है, वहीं राजस्थान विश्वविद्यालय की स्थिति यह है कि कुलपति और परीक्षा नियंत्रक पत्रकारों के फोन ही नहीं उठाते। इस आदेश के बारे में जब दोनों को फोन किया गया दोनों ने फोन उठाना ठीक नहीं समझा। उधर विश्वविद्यालय के जनसंपर्क प्रकोष्ठ के मुखिया भूपेंद्र सिंह से कुलपति का जवाब जानने के लिए कहा गया तो उन्होंने अलग ज्ञान देना शुरू कर दिया। उनका कहना था ‘इसमें कुलपति क्या करेंगे आप परीक्षा नियंत्रक से बात करो।’ जब ये पत्रकारों की नहीं सुनते, छात्रों की क्या सुनेंगे?
निजी विश्वविद्यालयों पर मेहरबानी:
उधर इस निर्देश के सामने आने के बाद चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। चर्चाएं जोरों पर है, ‘कुलपति खुद निजी विश्वविद्यालय से आए हैं, उसी के सहारे प्रोफेसर बने।’ ‘…निजी विश्वविद्यालय का कर्ज उतारने के लिए तो ऐसा नहीं किया गया।’ केंद्र व राज्य सरकार चाहती है हर उम्र का व्यक्ति पढ़े फिर विश्वविद्यालय प्रशासन क्यों अड़चनें पैदा कर रहा है? क्या विश्वविद्यालय प्रशासन चाहता है बच्चे निजी विश्वविद्यालय में डाइवर्ट हो जाएं? चर्चा इस बात की भी रही कि कुलपति की प्रोफेसर की अवधि को लेकर भी तरह-तरह की बातें बन रही है। पूर्व में कोटा में भी इन्होंने इतिहास रचा था और केवल एक ही व्यक्ति का इंटरव्यू हुआ था।