कल दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और सीईओ डाॅ. अब्दुल्ला की भेंट हुई और दूसरी घटना यह कि ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की लंबी भेंट-वार्ता छपी। उसमें अफगानिस्तान का केंद्रीय उल्लेख था। बाइडन से अफगान नेता अपना मनचाहा फायदा नहीं निकाल सके। अफगानिस्तान और पाकिस्तान, दोनों की सरकारें चाहती हैं कि अमेरिका सेना अफगानिस्तान में अभी टिकी रहें। 11 सितंबर को वापस न लौट जाएं। यह पता नहीं चला कि अशरफ गनी और अब्दुल्ला ने इस सवाल पर कितना जोर लगाया। उनकी बातचीत के जो विवरण सामने आए हैं, उससे यही अंदाज लगता है कि यदि उन्होंने जोर लगाया भी होगा तो वह बेअसर रहा। बाइडन ने साफ-साफ कहा कि अफगान फौजों की वापसी तो होकर ही रहेगी। सिर्फ कुछ सौ जवान वहाँ टिके रहेंगे ताकि अमेरिकी राजदूतावास को सुरक्षा दे सकें। जहां तक काबुल हवाई अड्डे का सवाल है, उसकी सुरक्षा का जिम्मा तुर्की की सरकार ले ही रही है लेकिन अफगानिस्तान के सैकड़ों छोटे-मोटे जिलों का क्या होगा, इस बारे में बाइडन ने कहा कि अब अफगानिस्तान अपने पांवों पर खड़ा होगा। पिछले 20 साल से अमेरिका उसकी सुरक्षा कर रहा था लेकिन अब यह जिम्मेदारी अफगान फौज की होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि अमेरिका-अफगानिस्तान का साथ छोड़ देगा। वह उसकी पूरी मदद करेगा।
उसकी सुरक्षा के लिए वह 3.3 बिलियन डाॅलर की मदद का भी इंतजाम कर रहा है। अफगानों को खुद तय करना है कि उनकी सुरक्षा कैसे होगी। वे उन अफगान नागरिकों को अमेरिका ले आएंगे, जो अमेरिका सेना के साथ सक्रिय थे और जिन्हें मार डालने के लिए तालिबान कटिबद्ध हैं। बाइडन की ये सब बातें काफी चिकनी-चुपड़ी लगती हैं लेकिन अमेरिका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कई विशेषज्ञों के साथ हुई मेरी बातचीत का नतीजा यह निकलता है कि अगले छह माह या साल भर में काबुल पर तालिबान का कब्जा हो जाएगा। कई अफगान नेता मुझसे पूछ रहे थे कि वे शीघ्र ही भारत में आकर रहने लगें तो कैसा रहेगा ? उधर अफगान सरकार ने दावा किया है कि उसने तालिबान को छह जिलों से बेदखल कर दिया है। इमरान खान ने अपनी भेंट-वार्ता में कहा है कि अमेरिका अपनी वापसी के पहले अफगान-संकट का हल निकलवा देता तो बेहतर होता। दूसरे शब्दों में अमेरिका अफगानिस्तान को अधर में लटकता छोड़कर जा रहा है। इमरान ने अमेरिकी वापसी के बाद उसे अपने हवाई अड्डों के इस्तेमाल की सुविधा देने से मना कर दिया है। इमरान ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है कि अफगान-संकट के राजनीतिक समाधान में पाकिस्तान की भूमिका क्या होगी। मेरा मानना है कि यदि पाकिस्तानी फौज और इमरान खान हिम्मत करें तो अफगान-संकट का हल वे अमेरिका से भी बेहतर निकाल सकते हैं।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)