– डा. ऋतु सारस्वत
भारत में विवाह की न्यूनतम आयु खासकर महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु एक विवादास्पद विषय रही है। जब भी इस प्रकार के नियमों में परिवर्तन की बात उठी तो सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवादियों का कड़ा प्रतिरोध देखने को मिला। ऐसा इस बार भी हो रहा है। शायद इसी कारण लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम आयु 18 से बढ़ाकर 21 साल करने संबंधी विधेयक को संसद की स्थाई समिति के पास भेजना पड़ा। जो भी हो, लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने के विरोध में जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं है। विरोध में उठे तथ्यहीन तर्कों की चर्चा करने से पूर्व यह आवश्यक हो जाता है कि उस तस्वीर को देखा जाए, जो 1954 के पहले की थी।

विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम आयु 14 से बढ़ाकर 18 वर्ष की गई। इसका असर यह हुआ कि 1951 में देश में प्रति हजार शिशु मृत्यु दर 116 थी, वह 2019-21 में 35 पर आ गई। यह तर्क अचंभित करता है कि 18 साल की लड़की जब वोट डालकर अपना प्रतिनिधि चुन सकती है तो जीवन साथी क्यों नहीं चुन सकती? यहां प्रश्न जीवनसाथी के चुनाव के लिए मानसिक परिपक्वता का नहीं, अपितु उस शारीरिक परिपक्वता का है, जो एक लड़की को अपने गर्भ में संतान को पालने के लिए चाहिए। गर्भावस्था, प्रसव और उसके पश्चात मां और बच्चे के स्वास्थ्य एवं पोषण के स्तर के साथ विवाह की आयु और मातृत्व के मध्य गहरा संबंध है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, गर्भावस्था और प्रसव संबंधी जटिलताओं का विश्व स्तर पर 15-19 वर्ष के मध्य की किशोर माताओं को 20-24 वर्ष की आयु की महिलाओं की तुलना में गर्भाशय का संक्रमण और उच्च रक्तचाप के कारण दौरे पड़ने के अधिक जोखिम का सामना करना पड़ता है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि जब लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 18 होने पर भी बाल विवाह हो रहे हैं तो इसे 21 साल करने का क्या औचित्य? इसमें दो राय नहीं कि देश के विभिन्न हिस्सों में आज भी चोरी-छिपे बाल विवाह हो रहे हैं, परंतु हमें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि विवाह की न्यूनतम 18 साल की कानूनी बाध्यता ने समाज में एक भय को अवश्य स्थापित किया है। अगर 67 साल पहले विवाह की न्यूनतम आयु में चार साल की बढ़ोतरी नहीं हुई होती और उसे 14 वर्ष यथावत रखा जाता तो आज मातृ और शिशु मृत्यु दर के आंकड़े डरावने होते।

सामाजिक बदलाव के लिए यह आवश्यक है कि समयानुसार कानून में परिवर्तन किए जाएं, परंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि कानून निर्मित होते ही मनुष्य की मानसिक जड़ताएं यकायक परिवर्तित हो जाएं। किशोरावस्था में विवाह व्यवस्थागत समस्या से कहीं अधिक समाज में व्याप्त उस सोच की परिणति है जहां लड़कियों के जीवन का अंततोगत्वा उद्देश्य विवाह को ही माना जाता है। यह स्थिति निर्धन परिवारों से लेकर मध्यमवर्गीय परिवारों में बदस्तूर कायम है। इस सोच में परिवर्तन शनै: शनै: ही संभव है, परंतु यह कानून उन बच्चियों के लिए राहत अवश्य लेकर आएगा, जिनके अभिभावक हर स्थिति में 18 साल के होते ही उनके विवाह के लिए आतुर हो जाते हैं।

देश का एक बड़ा तबका, जो कथित रूप से स्वयं को बुद्धिजीवी और समानता का प्रवर्तक मानता है, वह भी इस प्रस्ताव का विरोध कर रहा है। यह विरोध उनके दोहरे व्यक्तित्व को उजागर कर रहा है। लड़के और लड़कियों की वैवाहिक आयु में अंतर समानता के अधिकार (संविधान के अनुच्छेद 14) की अवहेलना है। यही वर्ग महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए पुरजोर आवाज भी उठाता है, परंतु क्या यह संभव है कि 18 वर्ष में विवाह हो जाने पर कोई युवती आर्थिक स्वावलंबन की ओर से सहजता से अपने कदम उठा पाए। इंटरनेशनल सेंटर फार रिसर्च आन विमेन तथा विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती हैं कि किशोरावस्था में विवाह के चलते आई शिक्षा में रुकावट महिलाओं के अर्थ अर्जन में औसतन नौ प्रतिशत की कमी करती है, जिसका परिवार और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट यह भी बताती है कि अगर दुनिया की प्रत्येक लड़की 12 वर्षों तक बिना किसी रुकावट गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाए तो विश्व की कमाई 15 ट्रिलियन डालर से 30 ट्रिलियन डालर तक बढ़ सकती है। वर्कले इकोनामिक रिव्यू में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि किशोरावस्था में विवाह किसी देश की जीडीपी को कम से कम 1.7 प्रतिशत की क्षति पहुंचाता है। साथ ही महिलाओं की कुल प्रजनन क्षमता में 17 प्रतिशत की वृद्धि करता है, जो उच्च जनसंख्या वृद्धि से जूझ रहे विकासशील देशों को नुकसान पहुंचाती है। दुनिया भर में हुए अनेक अध्ययन बताते हैं कि किशोरवय विवाह लड़कियों और युवा महिलाओं को अशक्त बनाता है। उन्हें शिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य, शोषण और हिंसा से मुक्त रहने सहित कई मौलिक मानव अधिकारों से वंचित करता है।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की एक रिपोर्ट में किशोरावस्था में विवाह को रोकने के लिए त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। इस रिपोर्ट मुताबिक, दशकों के अनुभव और अनुसंधान से स्पष्ट है कि बिल्कुल निचले स्तर पर जमीनी दृष्टिकोण के जरिये स्थायी परिवर्तन लाने में अधिक मदद मिलती है। महिलाओं को समर्थन देती कानूनी प्रणालियां इस तरह निर्मित की जानी चाहिए कि हर महिला को समान अवसर अवश्य मिले। इस दिशा में विवाह की न्यूनतम आयु में बढ़ोतरी युवतियों को शिक्षा और जीवन कौशल सिखाने के अवसर उपलब्ध कराने में मील का पत्थर साबित होगी।

(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर है)