बीकानेर । साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली एवं मुक्ति संस्था, बीकानेर की ओर से ‘राजस्थानी नाटकः परम्परा एवं चुनौतियां’ विषयक दो दिवसीय सेमिनार का रविवार को समापन हुआ।
स्टेशन रोड स्थित होटल राजमहल पैलेस में आयोजित समापन सत्र के मुख्य अतिथि जयपुर से आए वरिष्ठ रंगकर्मी साबिर खान ने दो दिवसीय समारोह को उपलब्धिमूलक बताते हुए कहा कि इससे राजस्थानी रंगमंच को नई दिशा मिलेगा और राजस्थानी रंगमंच चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम हो सकेगा। उन्होंने कहा कि राजस्थान में कई नाट्य लोक शैलियां हैं, किंतु आज के नाटककार आधुनिकता की ओर ज्यादा अग्रसर हैं, जबकि सही मायने में राजस्थानी नाटक वही है जिसमें राजस्थानी परिवेश, वातावरण एवं संस्कृति की झलक हो। उन्होंने डॉ. अर्जुनदेव चारण के नाट्यकर्म को रेखांकित करते हुए कहा कि उनके नाटक सही मायने में राजस्थानी रंगमंच के नाटक हैं।
अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी-साहित्यकार मधु आचार्य ‘आशावादी’ ने कहा कि राजस्थानी लोक नाट्य परम्परा बहुत ही समर्थ है। इसके बावजूद भी यह अफसोस की बात है कि आज तक राजस्थानी रंगमंच का कोई स्वरूप नहीं है। राजस्थानी रंगमंच पर अपेक्षित चर्चाएं भी नहीं हो पाती तथा अधिकांश लेखन एवं मंचन राजकीय प्रोजेक्ट के तहत ही हमारे सामने आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि मातृभाषा राजस्थानी में लिखकर ही, एक लेखक अपनी राष्ट्रीय पहचान बना सकने में समर्थ हो सकता है, यदि उसमें लग्न एवं समर्पण भाव हों।
इस सत्र का संचालन करते हुए कवि, कथाकार राजेन्द्र जोशी ने कहा कि दो दिवसीय सेमिनार से राजस्थानी लेखकों, रंगकर्मियों में नई ऊर्जा का संचार हुआ है। हमें भविष्य में राजस्थानी में नई नाट्यकृतियां देखने को मिलेंगी। मुक्ति संस्था के अध्यक्ष हीरालाल हर्ष ने आगंतुकों का आभार जताया।
इससे पहले दूसरे दिन के पहले सत्र में ‘राजस्थानी नाटकों का वर्तमान स्वरूप’ विषय पर चर्चा की गई। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी कैलाश भारद्वाज ने कहा कि ऐसा नहीं है कि समाज ने नाटक को हमेशा ही अस्वीकार किया हो। यह सच है कि समाज, इसे जल्दी से स्वीकार नहीं करता। इसके पीछे के कारणों पर हमें विचार करने की जरूरत है। रंगकर्म यदि समाज की विसंगतियों-विदू्रपताओं को उजागर करने में समर्थ बनेगा तो समाज भी हमारे साथ होगा। रंगमकर्मी को अनुशासित भाव से नाट्यकर्म को लेना चाहिए, ना कि सतही रूप से, तब ही उसकी समाज में अलग पहचान हो पाएगी।
इस सत्र में युवा आलोचक डॉ. गौरी शंकर निमिवाल ने अपने पत्रवाचन में कहा कि आरम्भ के राजस्थानी नाटकों में सामाजिक विसंगतियों को उठाया गया था, वहीं बाद में राजनैतिक चेतना एवं लोकतत्व को महत्व दिया जाने लगा। साहित्यकार शिवदानसिंह जोलावास ने अपने पत्रवाचन में कहा कि हमें राजस्थानी में मौलिक नाटकों की रचना करनी चाहिए, लेकिन आज अनुदित नाटकों पर अधिक जोर दिया जा रहा है। उन्होंने राजस्थानी नाटक एवं रंगमंच पर चर्चा एवं समीक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया। इस सत्र का संचालन कवि-कथाकार नवनीत पांडे ने किया।
दूसरे सत्र में ‘राजस्थान नाटकः चुनौतियां’ विषयक था। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए भीलवाड़ा के साहित्यकार गोपाल आचार्य ने कहा कि आज के अधिकांश राजस्थानी नाटकों में आमजन द्वारा प्रयुक्त मुहावरे, शब्दावली, लोकोक्तियां आदि का उपयोग बहुत कम देखने में आ रहा है, जबकि आमजन से जुड़ाव, आमजन की भाषा के नाटकों से ही हो सकता है। युवा कथाकार-नाटककार हरीश बी. शर्मा ने अपने पत्रवाचन में राजस्थानी नाटकों की कमी को रेखांकित करते हुए कहा कि राजस्थानी में नाटक कम लिखे जा रहे हैं, वहीं जो नाट्यालेख प्रकाशित हैं, उनका मंचन भी नहीं हो रहा है। उन्होंने राजस्थानी लोक परम्पराओं से नाटकों को जोड़ने की जरूरत बताते हुए कहा कि नाटकों की भाषा पात्रों के अनुरूप होनी चाहिए।
युवा कवि, आलोचक डॉ. राजेश कुमार व्यास ने अपने पत्रवाचन में कहा कि नाटक जनतांत्रिक विधा है। जड़ों तक पहुंचकर ही राजस्थानी नाटक को आगे बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने सभी कलाओं के अंतर्संबंधों को रेखांकित करते हुए कहा कि राजस्थानी नाटक तभी राष्ट्रीय पहचान बना पाएगा, जब वह अपनी जमीन से जुड़ा रहेगा। इस सत्र का संचालन युवा कवि गिरधरदान रत्नू दासौड़ी ने किया।
इस अवसर पर केन्द्रीय साहित्य अकादमी के राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के संयोजक डॉ. अर्जुनदेव चारण, लक्ष्मीनारायण रंगा, भवानी शंकर व्यास ‘विनोद’, मीठेश निर्मोही, बुलाकी शर्मा, मालचंद तिवाड़ी, कमल रंगा, श्रीलाल जोशी, भंवरलाल ‘भ्रमर’, दीपचंद सांखला, डॉ. श्रीलाल मोहता, बी. डी. जोशी, डॉ. वत्सला पांडे, डॉ. अजय जोशी, प्रदीप भटनागर, एस. डी. चौहान, इकबाल हुसैन, डॉ. मदन सैनी, पृथ्वीराज रतनू, आत्माराम भाटी, अशोक जोशी, रमेश भोजक ‘समीर’ तथा साहित्य अकादेमी के अधिकारी डॉ. शांतनु गंगोपाध्याय सहित अन्य रंगकर्मी, साहित्यकार एवं नाटककार मौजूद थे।