पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर हुए करार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरी सरकार ने ऐतिहासिक करार दिया है। प्रभाकर का कहना है कि भारत के लिए इसे लागू करने की राह आसान नहीं है।
नए पर्यावरण करार ने जहां विकसित देशों को अपनी मर्जी के मुताबिक कार्बन उत्सर्जन में कटौती की छूट दी है, वहीं भारत और उसकी तरह दूसरे विकासशील देशों पर इससे दबाव बढ़ेगा। भारत के कई हिस्से जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र के गर्भ में समा रहे हैं। सुंदरबन जैसे इलाकों में इसका असर साफ देखने को मिल रहा है। यही वजह है कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) समेत तमाम पर्यावरणविदों ने इस करार को कमजोर और देश पर दबाव बढ़ाने वाला बताया है।
भारत सरकार ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बिजली उत्पादन बढ़ाने की महात्वकांक्षी योजना बनाई है। इसके लिए वह गैर-परंपरागत ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित कर रही है। लेकिन अकेले इससे उसकी जरूरतें पूरी नहीं होंगी। ऐसे में कोयले के जरिए बिजली के उत्पादन को बढ़ाना उसकी मजबूरी है। जाहिर है इससे एक ओर उत्सर्जन बढ़ेगा जबकि दूसरी ओर इसमें कटौती का दबाव होगा। इससे उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। सीएसई का कहना है कि यह एक कमजोर करार है और इसमें उत्सर्जन में कटौती का कोई अर्थपूर्ण लक्ष्य नहीं तय किया गया है। नरेंद्र मोदी ने इस करार को ऐतिहासिक बताया है जबकि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर इस करार को भारत के लिए एक अहम उपलब्धि मानते हैं। लेकिन मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के थियागराजन जयरामन का कहना है कि यह करार भारत व उसकी तरह दूसरे विकासशील देशों के लिए एक भारी राजनीतिक नुकसान है।
विकसित देशों ने उत्सर्जन में कटौती के लिए विकासशील देशों को आर्थिक सहायता देने की बात कह कर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली है। लेकिन अभी उस सहायता का स्वरूप भी तय नहीं है। पर्यावरणविदों को आशंका है कि कहीं आगे चल कर विकास के लिए मिलने वाले अनुदान को ही जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने वाली सहायता बता कर विकसित देश इससे पल्ला न झाड़ लें। वैसे भी भारत में जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने की कोई आधारभूत व्यवस्था नहीं है। पश्चिम बंगाल के सुंदरबन इलाके में इसकी वजह से बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने के कारण कई द्वीप पानी में डूब चुके हैं। कई अन्य भी इसी राह पर हैं। इसे लेकर अब तक दर्जनों अध्ययन हो चुके हैं। लेकिन अब तक वह फाइलों में ही धूल फांक रहे हैं। इन द्वीपों के डूबने की वजह से हजारों लोग पर्यावरण के शरणार्थी बन कर विभिन्न शरणार्थी शिविरों में दिन काट रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन का असर देश में बदलते मौसम और इसकी वजह से खेती-किसानी को होने वाले नुकसान के तौर पर भी सामने आ रहा है। देश के कई अन्य हिस्सों में भी बदलते मौसम का असर अब साफ नजर आने लगा है। लेकिन किसी भी सरकार ने अब तक इनसे निपटने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है। ऐसे में पेरिस समझौते से रातोंरात हालात में किसी बदलाव की उम्मीद करना बेमानी ही है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस समझौते से हालात बदले या नहीं, भारत जैसे देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन में एक निश्चित सीमा तक कटौती करना मजबूरी बन जाएगी। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उसे अपनी ताप बिजली परियोजनाओं में भी कटौती करनी पड़ सकती है। इसका दूरगामी असर पड़ेगा। भारत ने वर्ष 2030 तक अपनी कुल बिजली जरूरतों का तीस फीसदी गैर-परंपरागत स्रोतों से पूरा करने की योजना बनाई है। उसके बावजूद उसकी अधिकांश जरूरत ताप बिजली से ही पूरी होगी। इससे उत्सर्जन बढ़ना तय है।
जाने-माने पर्यावरण विशेषज्ञ डा. सुगत हाजरा कहते हैं, ‘फिलहाल पेरिस करार से ज्यादा उत्साहित होने की जरूरत नहीं है। यह करार कागजों पर भले बेहतर नजर आता है। लेकिन इसे अमली जामा पहनाने में जो व्यावहारिक दिक्कतें हैं, उससे विकासशील देशों को भारी मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है।’ वह कहते हैं कि देश में अब तक जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए बड़े शहरों तक में कोई ठोस आघारभूत ढांचा नहीं बन सका है। ऐसे में दूर-दराज के इलाकों में तो इसकी कल्पना करना भी बेमानी है।
तो क्या ढोल पीट कर जिस पेरिस करार का सरकार इतना स्वागत कर रही है उससे देश को कोई फायदा नहीं होगा? इस सवाल पर विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए अभी कुछ महीनों तक इंतजार करना होगा। इसके साथ ही इस करार के प्रावधानों को लागू करने के मुद्दे पर विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों के रवैए पर भी निगाह रखना जरूरी है। ऐसे फिलहाल भारत जैसे देशों को इससे कोई तात्कालिक फायदा होने की उम्मीद तो कम ही है।