कैसे कोई साधारण से बहुत कम पढ़े-लिखे परिवार में जन्म लेकर बचपन में अखबार बांटने वाला एक बच्चा अपने जीवन में ऐसी ऊंचाई छू लेता है कि सारे संसार के अखबार उसकी मृत्यु को प्रमुख खबर बनाते हैं। प्रो. अबुल पकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम ने यह कर दिखाया। वास्तव में उनका जीवन, समाज के अंतिम व्यक्ति के राष्ट्र का प्रथम नागरिक बनने की कहानी है। 27 जुलाई 2015 भारतमाता का एक महान सपूत हमसे विदा ले गया। विश्व ने एक महान वैज्ञानिक को खोया। देश ने अपने पूर्व राष्ट्रपति को तो खोया ही, पर साथ ही करोड़ों बच्चों का भी उनके प्यारे ‘काका कलाम’ का बिछोह था यह।
वे 15 अक्टूबर 1931 को पवित्र रामेश्वरम् धाम की माटी में जन्मे, पले, बढ़े और समुद्र-सा विशाल और अगाध व्यक्तित्व ग्रहण करते गए। न अभाव उनकी रुकावट बने, न गरीबी उनकी बेड़ियां। बचपन में उनकी नन्ही तेजस्वी आंखों ने जो स्वप्न देखा, वह निरंतर बड़े से और बड़ा होते हुए इतना बड़ा हो गया कि सारा भारत विकसित राष्ट्रों की प्रथम पंक्ति में अपने दम पर स्वयं को खड़ा देखने लगा और वे उसे साकार करने में न केवल स्वयं जुटे, बल्कि उन्होंने आप जैसे बच्चों और युवा होते तरुणों की करोड़ों आंखों में वह स्वप्न बांट दिया।
‘तेजस्वी मन’, ‘भारत 2020 भारत के निर्माण की रूपरेखा’ और ‘अग्नि की उड़ान’ केवल उनकी किताबों के नाम नहीं हैं, बल्कि मुझे लगता है कि यह तो डॉ. कलाम के ही दूसरे नाम हैं, क्योंकि वे केवल लेखक ही नहीं, सर्जक भी थे। रक्षा वैज्ञानिक के रूप में रक्षक भी थे और शिक्षा मनीषी के रूप में शिक्षक भी।
उनके अंदर एक महामानव बसता था। वे गीता को पढ़ते ही नहीं, जीते भी थे। उनके मस्तिष्क में विज्ञान था तो हृदय में कला उनमें सदैव एक सच्चे मानव को गढ़ते रहती थी। राष्ट्रभक्ति उनकी रगों में रक्त बनकर बसी थी। अपने चिंतन से वे भावी पीढ़ी को स्वप्न दे गए तो वर्तमान पीढ़ी को अभय। अपने इस ‘मिसाइलमैन’ को भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’, ‘पद्मिविभूषण’ और ‘भारतरत्न’ देकर इन सम्मानों की ही गरिमा बढ़ाई है। वे कहते थे- ‘मैं शिक्षक हूं और इसी रूप में पहचाना जाना चाहता हूं।’ और सचमुच अपनी अंतिम श्वासें लेते समय वे विद्यार्थियों के बीच ही तो थे एक शिक्षक के रूप में।
भारत मां के इस सच्चे सपूत को इस प्रथम पुण्यतिथि पर सच्ची श्रद्धांजलि भारत मां का सच्चा सपूत बनकर ही दी जा सकती है। वे तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं, स्वप्न देखना चाहते थे। अपने पूर्ण विकसित राष्ट्र का स्वप्न और इसीलिए वे नहीं चाहते थे कि यह सपना पूरा करने तक तुम छुट्टी मनाओ, अपना लक्ष्य छोड़कर उनकी अंतिम बिदाई के दिन भी।