मैं मेजर ध्यान चंद की अनुज्ञाई । आज फिर वही पुरानी बात याद आई जिससे मुझे सरकार द्वारा उन्हें नज़र अंदाज़ करना याद आया।एक किस्सा तो आप सबको भी याद होगा जब भारत रत्न देने पर उनसे आगे सचिन(जो की खुद एक महान खिलाडी है) को दिया गया , पर एक किस्सा और है जब दद्दा के ज़िंदा रहते भारत सरकार ने उन्हें भुला दिया था। बात कुछ यु थी वो 51 वर्ष के थे आर्मी से सेवा निवृत हो चुके थे, पैसो की तंगी थी ,लेकिन हॉकी का जूनून तो बस एक जवान से बढ़ कर था, । उम्र तो ढल चुकी थी पर वो अहमदाबाद पहुच गए एक टूर्नामेंट को देखने , उन्हें लगा शायद यहाँ के लोग उन्हें पहचान जाएंगे और अंदर आने देंगे पर ऐसा नही हुआ ।उन्हें बुरी तरह धक्का देकर स्टेडियम से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया फिर भी उनकी शालीनता का अंदाजा लगाइये जो उन्होंने इस वाकये के खिलाफ कोई कदम नही उठाया। अगर सरकार भूल गई हो तो उन्हें ये याद दिला दे की ये वही मेजर ध्यान चंद है जिन्हें ‘the wizard’ नाम से जाना जाता था उनका असल नाम ध्यान सिंह था । वो इतने प्रभावशाली थे की वो रात में चाँद निकलने पर अभ्यास करते थे इसलिए उनके साथियो ने उन्हें ध्यान चंद बुलाना शुरू कर दिया।
इलाहबाद में जन्मे इस हॉकी के जादूगर ने हिंदुस्तान के लिए 3 ओलंपिक्स गोल्ड मैडल जीते है। एम्स्टर्डम (1928) los angeles (1932) बर्लिन(1936) इन्होंने अपने पुरे कैरियर में 400 गोल किये है जो अभी तक सबसे उच्चतम है। ऑस्ट्रेलियन लेजेंड डॉन ब्रैडमैन ने यहाँ तक कह डाला की ‘ये गोल ऐसे करते है जैसे क्रिकेट में रन बनते है’
भारत की तरफ से हॉकी में फॉरवर्ड पोजीशन पे खेलने वाले ध्यान चंद के बारे में एक किस्सा बड़ा मश्हूर है ।नीदरलैंड में इनकी हॉकी स्टिक पे ये कहके रिसर्च शुरू की गई की इसमें या तो मैगनेट लगा है या गोंद , तभी बॉल इनकी स्टिक से चिपक जाती है और कोई छीन भी नही पाता था। अब इसे तो जिज्ञासा ही कह सकते है पर दद्दा भी इतने कमाल के थे की अपनी सच्चाई बरक़रार रखने के लिए इन्होंने एक महिला से उनकी छड़ी ली जो हॉकी स्टिक नही थी , उससे गेम खेला और गोल भी किया । इसे कहते है एक तीर से दो निशाने। उनका अंदाजा तो इतना सटीक था की एक मैच में वो गोल नही कर पा रहे थे तो रेफरी से कहा की ये गोल पोस्ट अंतरास्ट्रीय माप दंड के अनुसार नही बना है ,उनकी शिकायत पर जब माप ली गई तो वो सही साबित हुए।इनका सबक सीखने का अंदाज़ भी जुदा था एक बार 1936 में जर्मनी के गोल कीपर ने उन्हें धक्का दे कर उनका एक दांत तोड़ दिया तब उन्होंने मैदान में वापस आ कर रणनीति बनाई और सब खिलाडीयो से बोल दिया पुरे समय बॉल जर्मन खेमे में रहनी चहिये जिससे गोल कीपर हर वक़्त चिंता में रहे की गोल कभी भी पड़ सकता है, लेकिन गोल मारना नही है अंत के चंद मिंटो में गोल मार कर मैच जीत लेंगे और हुआ भी वही।
इन बातो को दोहराने का क्या फायदा …एक तरफ जहा विदेशो में इनके नाम की धूम थी जैसे जर्मनी के हिटलर ने इन्हें वहा की सिटीजनशिप ,आर्मी में बड़ी पोस्ट और बेहतर ज़िन्दगी का भरोसा दिलाया पर ध्यान चंद जी ने अपने देश को तरहीज़ दी…… लंदन में एस्ट्रो-टर्फ पिच को उनका नाम दिया गया …..ऑस्ट्रिया में उनका एक विशाल स्मारक बनाया गया जिसमे उनके 4 हाथ 4स्टिक के साथ उनकी प्रतिभा को प्रदर्शित किया गया । वही दूसरी तरफ उनके ही देश में उनको वो इज़्ज़त नही दी गई। ऐसा नही है की इनपर ध्यान नही दिया गया । इनके लिए भारत सरकार ने ‘राष्ट्रिय खेल दिवस’ उनके जन्म दिन 29 अगस्त को घोषित किया , जिस दिन राष्ट्रपति खेल पुरस्कार देते है। उनको खुद भी कई सम्मान दिए गए है जैसे भारत का पदम् भूषण (1956) ,जेम ऑफ़ इंडिया ,20th नेशनल अवार्ड 2012 इनको दिए गए । इसके अलावा ध्यान चंद अवार्ड 2002 से दिया जाने लगा (खेल में अभूतपूर्व योगदान के लिए) । ध्यान चंद के नाम पर यहाँ मलिहाबाद के आस-पास ध्यान चंद स्पोर्ट्स स्टेडियम भी है यहाँ तक ध्यान चंद क्रिकेट अकादमी भी है।
वैसे तो इन्होंने अपने खेल कैरियर (1928-1948) के बीच काफी सरहनीय कारनामे किये है,पर एक किस्सा उनका बड़ा ही अचंभित करता है। 1932 समर ओलंपिक्स हॉकी फाइनल का मैच था जब इंडिया ने अमेरिका को 24-1 के विशाल फर्क से हराया था इसमें ध्यान चंद जी के 8 गोल थे और इनके भाई ने 10 गोल मारे थे तबसे इनकी जोड़ी को हॉकी ट्विन्स बुलाया जाता है।
इतना सब होते हुए भी सरकार उनको भूल के बैठ गई। जब बारी आई सर्वश्रेष्ठ सम्मान की तब इस जादूगर का जादू न चला । न जाने ये गन्दी वोट बैंक की राजनीति थी या कुछ और जिसका शिकार हुए दद्दा। इन्होंने उस समय नाम कमाया जब मीडिया इतना प्रभावी नही था जो उचे स्वर में इनकी उपलब्धिया गिनाता फिर भी पुरे विश्व में इनके चर्चे थे…..
हम ये नही कहते की सचिन महान नही है, परध्यान चंद के आगे अभी इन्हें नही देखते । बेशक सचिन भगवन है पर सिर्फ क्रिकेट के पुरे खेल जगत के नही। सचिन पूरी काबिलियत भी रखते है भारत रत्न होने की पर इसके सबसे पहले हकदार मेजर ध्यान चंद ही थे।